नौजवानों के सवाल
सृष्टि या विकासवाद—भाग 1: परमेश्वर पर क्यों विश्वास करें?
सृष्टि या विकासवाद?
क्या आप मानते हैं कि परमेश्वर ने सबकुछ बनाया है? अगर हाँ, तो आप अकेले नहीं हैं जो ऐसा सोचते हैं। ऐसे बहुत-से जवान (और बड़े लोग) हैं जो आपकी तरह मानते हैं कि सबकुछ परमेश्वर ने बनाया है। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि जीवन और विश्व अपने आप वजूद में आया है, यानी इन्हें किसी परमेश्वर ने नहीं बनाया।
क्या आप जानते हैं? परमेश्वर को माननेवाले और विकासवाद को माननेवाले, दोनों ही किस्म के लोग बिना हिचकिचाए बताते हैं कि वे क्या मानते हैं मगर वे यह नहीं जानते कि वे ऐसा क्यों मानते हैं।
कुछ लोग जो मानते हैं कि परमेश्वर ने सृष्टि की है, वे बस इसलिए ऐसा मानते हैं क्योंकि उन्हें चर्च में ऐसा सिखाया गया है।
बहुत-से लोग जो मानते हैं कि सबकुछ अपने आप विकसित होकर आ गया, वे बस इसलिए ऐसा मानते हैं क्योंकि उन्हें स्कूल में ऐसा सिखाया गया है।
इस श्रृंखला के लेख इस बात पर आपका विश्वास मज़बूत करेंगे कि परमेश्वर ने ही सबकुछ बनाया है। तब आप यह बात दूसरों को भी अच्छी तरह बता पाएँगे। मगर सबसे पहले आपको खुद से यह सवाल करना है:
मैं परमेश्वर पर क्यों विश्वास करता हूँ?
खुद से यह सवाल पूछना क्यों ज़रूरी है? क्योंकि शास्त्र आपको बढ़ावा देता है कि आप अपने दिमाग का यानी अपनी “सोचने-समझने की शक्ति” का इस्तेमाल करें। (रोमियों 12:1) इसका मतलब यह है कि आपको परमेश्वर पर सिर्फ इसलिए विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि
आप ऐसा महसूस करते हैं (मुझे बस लगता है कि दुनिया को चलानेवाली कोई बड़ी शक्ति ज़रूर है)
आप पर दूसरों का असर हुआ है (मैं ऐसे इलाके में रहता हूँ जहाँ लोग बहुत धार्मिक हैं)
आप पर दूसरों का दबाव है (मेरे मम्मी-पापा ने बचपन से मुझे परमेश्वर पर विश्वास करना सिखाया)
इसके बजाय आपको खुद इस बात का यकीन होना चाहिए कि परमेश्वर है और ऐसा मानने के लिए आपके पास वाजिब कारण भी होने चाहिए।
तो सोचिए कि क्या बात आपको यकीन दिलाती है कि परमेश्वर वजूद में है? अँग्रेज़ी वर्कशीट “मैं परमेश्वर पर क्यों विश्वास करता हूँ?” आपको अपना विश्वास मज़बूत करने में मदद देगा। इसके अलावा, जब आप जानेंगे कि दूसरे जवान क्यों परमेश्वर पर विश्वास करते हैं तो आप बहुत कुछ सीख पाएँगे।
“क्लास में जब टीचर समझाती है कि हमारा शरीर किस तरह काम करता है, तो मेरे मन में शक की कोई गुंजाइश नहीं रहती कि परमेश्वर सचमुच है। शरीर के हर अंग का अपना एक काम होता है और उस काम में भी बहुत-सी बारीकियाँ होती हैं। शरीर के अंग अपना-अपना काम करते जाते हैं और कई बार हमें उनका एहसास तक नहीं होता। वाकई, हमारे शरीर की रचना पर गौर करने से दिमाग चकरा जाता है!—तेरेसा।
“जब मैं एक गगनचुंबी इमारत, एक बड़ा जहाज़ या एक कार देखता हूँ, तो मैं खुद से पूछता हूँ, ‘इसे किसने बनाया?’ मिसाल के लिए, अगर कार की बात करें तो उसे बनाने के लिए बुद्धिमान लोगों की ज़रूरत होती है क्योंकि कार के न जाने कितने छोटे-छोटे पुरज़े होते हैं और उन सबको सही जगह लगाना होता है ताकि कार चल सके। जैसे कार को कोई-न-कोई बनाता है, उसी तरह इंसानों को भी बनानेवाला कोई ज़रूर है।—रिचर्ड।
“इस विश्व के छोटे-से हिस्से को समझने में ही जब दुनिया के बड़े-बड़े बुद्धिमान लोगों को सैकड़ों साल लगे, तो क्या यह विश्व बिना किसी बुद्धिमान व्यक्ति के अपने आप वजूद में आ गया होगा? ऐसा कहना कितना बेतुका होगा!”—कैरन।
“मैंने जितना ज़्यादा विज्ञान की पढ़ाई की, मुझे उतना ज़्यादा एहसास होने लगा कि विकासवाद के सिद्धांत पर यकीन नहीं किया जा सकता। मिसाल के लिए, मैंने इस बारे में सोचा कि कुदरत की हर चीज़ कितनी सटीक है और इंसान कितना अनोखा है। जैसे, सिर्फ इंसानों में ही यह जानने का एहसास रहता है कि हम कौन हैं, कैसे वजूद में आए और हमारा भविष्य कैसा होगा। विकासवाद का सिद्धांत इन सभी सवालों के जवाब जानवरों के बरताव के आधार पर देने की कोशिश करता है, मगर यह सिद्धांत अब तक इस सवाल का जवाब नहीं दे सका है कि हम इंसान जानवरों से अलग क्यों हैं। मेरे हिसाब से तो एक सृष्टिकर्ता है, यह मानने के लिए इतना विश्वास नहीं चाहिए जितना कि विकासवाद के सिद्धांत को मानने के लिए चाहिए।”—एंथनी।
दूसरों को समझाना कि मैं क्यों ऐसा मानता हूँ
अगर आपके क्लास के बच्चे आपका मज़ाक उड़ाते हैं कि आप एक परमेश्वर पर विश्वास करते हैं जबकि वह दिखायी नहीं देता, तो आप क्या कर सकते हैं? अगर वे कहते हैं कि विज्ञान ने “साबित” कर दिया है कि विकासवाद सही है, तो आप क्या कर सकते हैं?
सबसे पहले तो भरोसा रखिए कि आप जो मानते हैं वह सही है। दूसरे बच्चों से डरिए मत, न ही शर्मिंदा महसूस कीजिए। (रोमियों 1:16) और याद रखिए:
1. आप अकेले नहीं बल्कि बहुत-से लोग आज के ज़माने में भी परमेश्वर पर विश्वास रखते हैं। इनमें कुछ तो बड़े-बड़े मेधावी और जानकार लोग हैं। मिसाल के लिए, कुछ वैज्ञानिक भी मानते हैं कि एक परमेश्वर है।
2. जब लोग कहते हैं कि वे नहीं मानते कि कोई परमेश्वर है तो उनमें से ज़्यादातर लोगों के कहने का मतलब होता है कि वे परमेश्वर जैसे शख्स को समझ नहीं पाते। वे इस बात के कोई सबूत नहीं देते कि परमेश्वर नहीं है। इसके बजाय, वे ऐसे सवाल करते हैं, जैसे “अगर परमेश्वर है तो वह दुख-तकलीफें क्यों आने देता है?” एक तरह से वे सवाल के जवाब में कारण बताने के बजाय अपने जज़्बात ज़ाहिर करते हैं।
3. इंसानों को इस तरह बनाया गया है कि उनमें “परमेश्वर से मार्गदर्शन पाने की भूख” होती है। (मत्ती 5:3) इसका मतलब इंसानों को इस तरह बनाया गया है कि वे परमेश्वर को मानें। इसलिए अगर कोई कहता है कि परमेश्वर नहीं है तो यह समझाना उसकी ज़िम्मेदारी है कि वह कैसे उस नतीजे पर पहुँचा है। यह आपकी ज़िम्मेदारी नहीं है।—रोमियों 1:18-20.
4. यह मानना हर तरह से सही है कि परमेश्वर है। यह इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह बात साबित हो चुकी है कि जीवन अपने आप वजूद में नहीं आ सकता। यह कहने के लिए कोई सबूत नहीं है कि जीवन की शुरूआत अचानक बेजान चीज़ों से हो सकती है।
लेकिन अगर कोई आपसे सवाल करता है कि आप क्यों परमेश्वर को मानते हैं तो आप क्या जवाब दे सकते हैं? जवाब देने के कुछ तरीकों पर गौर कीजिए।
अगर कोई कहता है: “सिर्फ अनपढ़ लोग ही परमेश्वर को मानते हैं।”
आप कह सकते हैं: “क्या आप सचमुच इस सुनी-सुनायी बात पर यकीन करते हैं? मैं यकीन नहीं करता। दरअसल एक सर्वे में 1,600 से ज़्यादा विज्ञान के प्रोफेसरों ने हिस्सा लिया था जो कई नामी विश्व-विद्यालयों से थे। उनमें से एक तिहाई प्रोफेसरों ने कहा कि वे न तो नास्तिक हैं न ही उन्हें परमेश्वर के वजूद पर कोई शक है। a क्या आप कहेंगे कि ये प्रोफेसर अकलमंद नहीं हैं, सिर्फ इसलिए कि वे परमेश्वर को मानते हैं?”
अगर कोई कहता है: “अगर एक परमेश्वर है तो दुनिया में इतनी दुख-तकलीफें क्यों हैं?”
आप कह सकते हैं: “शायद आपके कहने का यह मतलब है कि अगर परमेश्वर है तो वह कुछ करता क्यों नहीं। है ना? [जवाब के लिए रुकिए।] मैंने इस सवाल का जवाब पाया है कि दुनिया में इतनी तकलीफें क्यों हैं। मगर इसका जवाब जानने के लिए हमें बाइबल की कई शिक्षाएँ जाननी होंगी। क्या आप जानना चाहोगे?”
इस श्रृंखला के अगले लेख में समझाया जाएगा कि विकासवाद का सिद्धांत हमारे वजूद से जुड़े सवालों का सही-सही जवाब क्यों नहीं देता।
a जानकारी का स्रोत: सामाजिक विज्ञान खोजबीन परिषद, इलेन हाउवर्ड एकलंड द्वारा “विश्व-विद्यालय के वैज्ञानिकों में धर्म और आध्यात्मिकता,” 5 फरवरी, 2007.