हमने यहोवा पर पूरा भरोसा रखना सीखा
जीवन कहानी
हमने यहोवा पर पूरा भरोसा रखना सीखा
नाटाली हॉलटॉर्फ की ज़ुबानी
सन् 1945 के जून महीने की बात है। एक दिन एक बीमार-सा आदमी हमारे घर के सामनेवाले दरवाज़े पर आकर चुपचाप खड़ा रहा। उसे देखते ही मेरी छोटी बेटी रूत चिल्ला उठी: “मम्मी, देखो दरवाज़े पर कोई खड़ा है!” बेचारी क्या जानती थी कि वह अजनबी उसके डैडी हैं यानी मेरे प्यारे पति फर्डीनांट। दो साल पहले, जब रूत को पैदा हुए तीन ही दिन हुए थे तब मेरे पति किसी काम के सिलसिले में घर से बाहर गए, उन्हें गिरफ्तार किया गया और आखिर में नात्ज़ी यातना शिविर में डाल दिया गया। लेकिन आज इतने लंबे अरसे बाद रूत अपने डैडी से मिली और हमारा परिवार फिर से एक हो गया। फर्डीनांट और मुझे एक-दूसरे को बताने के लिए ढेर सारी बातें थीं!
फर्डीनांट का जन्म सन् 1909 में जर्मनी के कीअल शहर में हुआ था और मैं सन् 1907 में जर्मनी के ड्रैस्डन शहर में पैदा हुई थी। जब मैं 12 साल की थी, तब पहली बार हमारे परिवार की मुलाकात बाइबल विद्यार्थियों से हुई। उन दिनों यहोवा के साक्षी इसी नाम से जाने जाते थे। जब मैं 19 साल की हुई तब मैंने इवैंजलिकल चर्च से नाता तोड़कर अपना जीवन यहोवा को समर्पित किया।
इस दौरान, फर्डीनांट जहाज़रानी कॉलेज से ग्रेजुएट हुए और नाविक बन गए। समुद्री यात्राओं के दौरान, वे सिरजनहार के वजूद से जुड़े सवालों पर सोचा करते थे। एक बार अपनी यात्रा खत्म करने के बाद, वे अपने भाई से मिलने गए जो एक बाइबल विद्यार्थी था। इसी मुलाकात से फर्डीनांट को यकीन हो गया कि उन्हें परेशान करनेवाले सारे सवालों के जवाब बाइबल में हैं। उन्होंने लूथरन चर्च से नाता तोड़ दिया और नाविक का काम भी छोड़ने का फैसला किया। प्रचार में पहला दिन बिताने के बाद, उनके मन में यह गहरी इच्छा पैदा
हुई कि वे अपनी बाकी की ज़िंदगी इसी काम में बिताएँ। और उसी रात उन्होंने अपना जीवन यहोवा को समर्पित कर दिया। उनका बपतिस्मा अगस्त 1931 को हुआ।एक नाविक और प्रचारक
नवंबर 1931 में, फर्डीनांट ट्रेन से नेदरलैंड्स के लिए रवाना हो गए ताकि वहाँ के प्रचार काम में हाथ बँटा सके। उस देश में जो भाई प्रचार के काम का इंतज़ाम कर रहा था, उसे जब फर्डीनांट ने बताया कि वे एक नाविक रह चुके हैं, तो वह फूला न समाया और बोला: “हमें तुम्हारे ही जैसे आदमी की तलाश थी!” दरअसल भाइयों ने एक बोट किराए पर ली थी ताकि पायनियरों (पूरे समय के सेवक) का एक समूह देश के उत्तरी इलाकों में नहर के पास बसे लोगों को प्रचार कर सके। बोट पर पाँच लोगों का नाविक दल था, लेकिन उनमें से किसी को भी बोट चलाना नहीं आता था। इसलिए फर्डीनांट को कप्तान बनाया गया।
छ: महीने बाद फर्डीनांट को दक्षिणी नेदरलैंडस् के टिलबर्ग इलाके में पायनियर सेवा करने के लिए कहा गया। इसी दौरान मैं भी वहाँ पायनियर सेवा के लिए आयी और फर्डीनांट से मेरी मुलाकात हुई। मगर तभी हमें उत्तरी इलाके के ग्रॉनिंगन नाम की जगह जाने के लिए कहा गया। और वहाँ अक्टूबर 1932 को हमने शादी कर ली। हमने पायनियर सेवा करने के साथ-साथ एक घर में अपना हनीमून मनाया, जिसमें कई पायनियर रहने के लिए आते थे।
सन् 1935 में हमारी बेटी एसटा पैदा हुई। हालाँकि हम तंग हाल में थे, फिर भी हमने ठान ली थी कि हम पायनियरिंग जारी रखेंगे। हम एक दूसरे कसबे में जा बसे और एक छोटे-से घर में रहने लगे। जब मैं घर पर रहकर बच्ची की देखभाल करती तो मेरे पति सारा दिन प्रचार में बिताते थे। फिर अगले दिन मैं प्रचार में निकलती और वे घर पर रहकर बच्ची का ख्याल रखते थे। ऐसा तब तक चलता रहा जब तक कि एसटा इतनी बड़ी न हो गयी कि हमारे साथ प्रचार में आ सके।
थोड़े ही समय बाद, यूरोप के राजनीतिक हालात पर खतरे के बादल मँडराने लगे। हमें पता चला कि जर्मनी में साक्षियों को सताया जा रहा है, और हम जानते थे कि जल्द ही हमारी बारी भी आनेवाली है। हम सोच में पड़ गए कि क्या हम आनेवाले भयानक ज़ुल्मों को सह पाएँगे। सन् 1938 में नेदरलैंडस् के अधिकारियों ने एक फरमान जारी किया कि अब से विदेशियों पर धार्मिक साहित्य बाँटकर प्रचार काम करने की मनाही है। हमें प्रचार काम जारी रखने में नेदरलैंडस् के साक्षियों ने मदद दी। उन्होंने हमें उन लोगों के नाम दिए जो हमारे काम में दिलचस्पी रखते थे और इनमें से कुछ लोगों के साथ हम बाइबल अध्ययन कर सके।
उसी समय के आस-पास यहोवा के साक्षियों का एक अधिवेशन रखा गया था। हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम ट्रेन की टिकट खरीद सकते, फिर भी हम अधिवेशन जाना चाहते थे। इसलिए हमने तीन दिन साइकिल पर सफर करने का फैसला किया। हमने नन्ही एसटा को साइकिल के हैंडल से जुड़ी टोकरी में बिठाया और निकल पड़े। हम रात को अलग-अलग साक्षियों के घर ठहरे जो सफर के रास्ते पर रहते थे। यह हमारे लिए क्या ही खुशी की बात थी कि हम अपने पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में हाज़िर हुए! अधिवेशन के कार्यक्रम ने हमें आनेवाली परीक्षाओं का डटकर सामना करने के लिए मज़बूत किया। सबसे बढ़कर हमें याद दिलाया गया कि हम अपना पूरा भरोसा यहोवा पर रखें। भजन 31:6 के ये शब्द हमारी ज़िंदगी का उसूल बन गए: “मेरा भरोसा यहोवा ही पर है।”
नात्ज़ियों के हाथों शिकार
मई 1940 में नात्ज़ियों ने नेदरलैंडस् पर कब्ज़ा कर लिया। कुछ ही समय बाद, अचानक एक दिन गेस्टापो या खुफिया पुलिस हमारे घर पर टूट पड़ी। उस वक्त हम बाइबल साहित्य की छँटाई कर रहे थे। वे फर्डीनांट को पकड़कर अपने मुख्यालय ले गए। एसटा और मैं बराबर फर्डीनांट से मिलने जाया करती थीं और कभी-कभी तो हमारे सामने ही उनसे पूछताछ की जाती और उन्हें पीटा जाता था। दिसंबर में अचानक उन्हें रिहा कर दिया गया लेकिन यह आज़ादी थोड़े समय की थी। एक शाम जब हम घर लौट रहे थे तो हमने थोड़ी दूर से देखा कि हमारे घर के आगे गेस्टापो की गाड़ी खड़ी है। वही से फर्डीनांट उलटे पाँव लौट गए, जबकि मैं और एसटा घर के अंदर गए। गेस्टापो हमारा इंतज़ार कर रहे थे। उन्हें फर्डीनांट चाहिए था। उसी रात गेस्टापो के जाने के बाद, नेदरलैंडस् की पुलिस आयी और पूछताछ के लिए मुझे अपने साथ ले गयी। अगले दिन एसटा और मैं नॉर्डर परिवार के घर जाकर छिप गए। इस जोड़े का अभी-अभी बपतिस्मा हुआ था। उन्होंने हमें अपने घर में पनाह दी, जहाँ हम महफूज़ रहे।
जनवरी 1941 के आखिर में, एक पायनियर जोड़े को गिरफ्तार कर लिया गया जो एक हाउस-बोट (नौकाघर) में रहता था। अगले दिन एक सर्किट ओवरसियर (सफरी सेवक) और मेरे पति उस हाउस-बोट से उनका कुछ सामान लाने के लिए गए। लेकिन तभी गेस्टापो के साथी उन पर लपक पड़े। फर्डीनांट किसी तरह उनके हाथ से निकल गए और अपनी बाइक पर वहाँ से फरार हो गए। लेकिन सर्किट ओवरसियर को पकड़कर जेल ले जाया गया।
ज़िम्मेदार भाइयों ने फर्डीनांट को सर्किट ओवरसियर की जगह लेने के लिए कहा। इसका मतलब था कि अब वे महीने में ज़्यादा-से-ज़्यादा तीन दिन के लिए घर आ सकते थे। यह हमारे लिए एक नयी चुनौती थी, फिर भी मैंने अपनी पायनियर सेवा जारी रखी। साक्षियों को पकड़ने के लिए गेस्टापो ने अपनी कोशिशें और तेज़ कर दीं, इसलिए हम भी अपना ठिकाना बदलते रहे। सन् 1942 में हमने तीन बार घर बदले। आखिर में, हम रॉटरडैम शहर में आ बसे। यह शहर उस जगह से काफी दूर था जहाँ फर्डीनांट लुक-छिपकर सेवा कर रहे थे। उस समय तक मुझे दूसरा बच्चा होनेवाला था। कम्प नाम के एक परिवार ने हमें सिर छिपाने की जगह दी। उनके दो लड़को को हाल ही में यातना शिविरों में डाला गया था।
गेस्टापो हाथ धोकर पीछे पड़ गए
हमारी दूसरी बेटी रूत जुलाई 1943 में पैदा हुई। उसके पैदा होने के बाद, फर्डीनांट हमारे साथ सिर्फ तीन दिन रह पाए क्योंकि उनका जाना ज़रूरी था। फिर हम उन्हें लंबे अरसे तक देख नहीं पाए। घर से जाने के तीन हफ्ते बाद, उन्हें एम्पस्टरडैम में गिरफ्तार कर लिया गया। फिर उन्हें गेस्टापो के थाने ले जाया गया जहाँ उनकी पहचान को पुख्ता किया गया। गेस्टापो ने प्रचार काम से जुड़ी बातें उगलवाने के लिए उनसे ज़बरदस्त तरीके से सवाल-जवाब किए। लेकिन फर्डीनांट ने सिर्फ इतना बताया कि वह एक यहोवा का साक्षी है और राजनीति से उसका कोई लेना-देना नहीं है। गेस्टापो के अफसर फर्डीनांट पर आग-बबूला हो उठे कि वह एक जर्मन नागरिक होते हुए भी सेना में क्यों भर्ती नहीं हुआ और उन्होंने धमकी दी कि वे इस गद्दारी के लिए उन्हें जान से मार डालेंगे।
अगले पाँच महीनों के लिए फर्डीनांट को एक कोठरी में बंद किया गया। वहाँ उन्हें बार-बार यह धमकी दी गयी कि उन्हें गोलियों से भून दिया जाएगा। मगर वे यहोवा के वफादार रहने से ज़रा भी डगमगाए नहीं। किस बात ने उन्हें आध्यात्मिक तौर पर मज़बूत बने रहने में मदद दी? परमेश्वर के वचन, बाइबल ने। एक साक्षी होने की वजह से उन्हें अपने पास बाइबल रखने की इजाज़त नहीं थी। मगर दूसरे कैदियों के लिए ऐसी कोई मनाही नहीं थी। इसलिए फर्डीनांट ने अपने साथी कैदी को कायल किया कि वह अपने घरवालों से एक बाइबल भेजने के लिए कहे और उसने वैसा ही किया। सालों बाद भी जब कभी फर्डीनांट यह किस्सा सुनाते तो उनकी आँखें चमक उठती थीं और वे कहते थे: “उस बाइबल से मुझे क्या ही सांत्वना मिली!”
जनवरी 1944 की शुरूआत में, फर्डीनांट को अचानक नेदरलैंडस् के वोक्त के एक यातना शिविर में ले जाया गया। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि यह उनके लिए एक आशिष साबित होगा। उस शिविर में 46 साक्षी थे। जब मुझे इस बदलाव का पता चला तो यह जानकर कि फर्डीनांट अभी-भी जिंदा हैं, मेरी जान में जान आयी!
यातना शिविर में बिना रुके प्रचार करना
शिविर की ज़िंदगी बहुत मुश्किल थी। एक तो बहुत कम खाना दिया जाता था, ऊपर से कड़ाके की ठंड होने के बावजूद
उन्हें पहनने के लिए गरम कपड़े नहीं दिए जाते थे। यह उनकी रोज़ की हकीकत बन चुकी थी। इस वजह से फर्डीनांट को बुरी तरह टॉन्सिल हो गया था। अपनी हाज़िरी देने के लिए उन्हें बाहर ठंड में काफी देर खड़ा रहना पड़ा, उसके बाद वे शिविर के अस्पताल गए। जिन मरीज़ों को 40 डिग्री सेंटीग्रेड या उससे ज़्यादा बुखार होता, उन्हीं को अस्पताल में भर्ती किया जाता था। लेकिन फर्डीनांट को भर्ती नहीं किया गया, क्योंकि उन्हें सिर्फ 39 डिग्री सेंटीग्रेड बुखार था! उन्हें काम पर लौटने के लिए कहा गया। लेकिन हमदर्द साथी कैदियों ने उनकी मदद की। उन्होंने थोड़े समय के लिए उन्हें एक गरम जगह पर छिपाकर रखा। इसके अलावा, जैसे-जैसे मौसम थोड़ा गरम हुआ, तो उन्हें काफी राहत मिली। इतना ही नहीं, जिन भाइयों को खाने के पैकेट मिलते, वे आपस में मिल-बाँटकर खाते। इस तरह फर्डीनांट को सेहत पाने में मदद मिली।प्रचार करना शुरू से ही मेरे पति की ज़िंदगी रही थी। अब शिविर में भेजे जाने के बाद भी वे अपने विश्वास के बारे में दूसरों को बताते रहे। शिविर में कपड़ों पर पहना जानेवाला बैंजनी रंग का तिकोन (purple triangle) साक्षियों की पहचान थी। वहाँ के अफसर इस तिकोन को देखकर अकसर फर्डीनांट पर ताना कसते थे। मगर फर्डीनांट बुरा नहीं मानते थे बल्कि ऐसे मौकों का फायदा उठाकर उन्हें भी गवाही देते थे। पहले-पहल भाइयों के प्रचार करने का इलाका सिर्फ उनके अपने ही बैरक तक सीमित था जहाँ ज़्यादातर साक्षियों को रखा गया था। भाई अपने मन में सोचते थे कि ‘हम दूसरे कैदियों तक कैसे पहुँच सकते हैं?’ अनजाने में शिविर के अधिकारियों ने ही इस परेशानी का हल कर दिया। कैसे?
भाइयों के पास कुछ बाइबल साहित्य और 12 बाइबलें थीं, जो उन्हें चोरी-छिपे मिली थीं। एक दिन पहरेदारों को इनमें से कुछ साहित्य मिल गए लेकिन वे यह पता नहीं कर पाए कि ये साहित्य किसके हैं। इसलिए शिविर के अफसरों ने फैसला किया कि किसी भी तरह साक्षियों की एकता तोड़नी होगी। इसलिए सज़ा के तौर पर सब भाइयों को अलग-अलग बैरक में डाल दिया गया, जहाँ दूसरे गैर-साक्षी कैदी भी थे। इसके अलावा, भाइयों को दूसरे कैदियों के साथ बैठकर खाना खाना पड़ता था। यह इंतज़ाम एक आशीष साबित हुई। अब भाई वो काम कर सकते थे जो वे पहले से करना चाहते थे, यानी ज़्यादा-से-ज़्यादा कैदियों को प्रचार करना।
दो बेटियों की अकेले परवरिश करना
इस दौरान, मैं अपनी दोनों बेटियों के साथ रॉटरडैम में ही रहती थी। सन् 1943/44 में बड़ी ज़ोरों की सर्दी थी। हमारे घर के पीछे जर्मन सैनिकों का एक लशकर था, जो दुश्मन के विमानों को मार गिराता था। और घर के सामने, वॉल बंदरगाह था जो कि मित्र-राष्ट्रों के हवाई-जहाज़ों का खास निशाना था। इसलिए असल में देखा जाए तो यहाँ छिपना बहुत ही जोखिम भरा था। इसके अलावा, खाने की भारी कमी थी। ऐसे में हमने पहले से कहीं ज़्यादा, यहोवा पर पूरा भरोसा रखना सीखा।—नीतिवचन 3:5, 6.
आठ साल की एसटा हमारे छोटे परिवार के लिए बहुत मददगार थी। जब भी ज़रूरतमंदों को खाना बाँटा जाता, तो वह कतार में खड़ी होती और हमारे लिए खाना लाता थी। लेकिन अकसर जब तक एसटा की बारी आती, तब तक खाना खत्म हो जाता था। एक बार जब वह खाने की तलाश में निकली, तभी एक हवाई हमला शुरू हो गया। जब मैंने धमाके सुने तो मेरा खून सूख गया। लेकिन जल्द ही मेरी घबराहट खुशी के आँसुओं में बदल गयी, जब मैंने देखा कि एसटा सही-सलामत लौट आयी है। और-तो-और, वह अपने हाथों में कुछ चीनी चुकंदर लिए हुए थी। उसके आते ही मैंने पूछा, “क्या हुआ?” वह बड़े आराम से बोली: “जब बम गिरा, तो मैंने वही किया जो डैडी ने मुझे बताया था, ‘सीधे ज़मीन पर लेट जाना, वहीं पड़े रहना और प्रार्थना करना।’ यह तरकीब काम कर गयी!”
मेरे बात करने के लहज़े से मालूम पड़ जाता था कि मैं जर्मन हूँ, इसलिए खरीदारी के लिए एसटा का जाना ज़्यादा सुरक्षित था। फिर भी यह बात जर्मन सैनिकों से छिपी नहीं रही और वे एसटा से सवाल करने लगे। लेकिन उसने उनको कोई जानकारी नहीं दी। घर पर मैं एसटा को बाइबल सिखाया करती थी, साथ ही उसे पढ़ना-लिखना और दूसरे हुनर भी सिखाती क्योंकि वह स्कूल नहीं जा सकती थी।
एसटा ने प्रचार काम में भी मेरी मदद की। जब मुझे बाइबल अध्ययन के लिए किसी के घर जाना होता तो पहले एसटा मेरे आगे जाकर देखती कि रास्ता साफ है या नहीं। मैंने बाइबल विद्यार्थियों को बता रखा था कि वे कुछ निशानियों से ज़ाहिर करें कि मैं उनके घर आ सकती हूँ।
एसटा इन्हीं निशानियों को देखने के लिए पहले निकल पड़ती थी। मसलन, अगर एक विद्यार्थी ने अपनी खिड़की पर फूलों का गमला तय की गयी जगह पर रखा है, तो इसका मतलब था कि मैं उसके यहाँ जा सकती हूँ। जब मैं बाइबल अध्ययन चला रही होती तो एसटा, रूत को बच्चे-गाड़ी में सड़क पर घुमाया करती थी ताकि वह नज़र रख सके कि कोई खतरा तो नहीं है।ज़ाकसनहाउज़न की ओर
दूसरी तरफ फर्डीनांट पर क्या बीत रही थी? सितंबर 1944 में उन्हें कई लोगों के साथ ज़बरदस्ती रेलवे स्टेशन ले जाया गया। वहाँ मालगाड़ी के एक-एक डिब्बे में 80-80 कैदियों को ठूँसकर भर दिया गया। हर डिब्बे में दो बाल्टियाँ थीं, एक उनके लिए टॉयलेट था और दूसरे में उनके पीने के लिए पानी था। सफर तीन दिन और तीन रात का था, और डिब्बे में सिर्फ खड़े रहने की जगह थी! हवा के आने-जाने के लिए बहुत ही कम जगह थी। इस बंद डिब्बे में सिर्फ यहाँ-वहाँ छोटे-छोटे छेद थे। गरमी, भूख और प्यास से उनकी जो हालत हुई, उसका बयान नहीं किया जा सकता। और बदबू इतनी थी कि बस पूछो मत!
ट्रेन सबसे खतरनाक यातना शिविर, ज़ाकसनहाउज़न में आकर रुकी। अब तक कैदियों के पास जो भी निजी सामान बचा था, सब ज़ब्त कर लिया गया। सिर्फ साक्षियों को 12 छोटी बाइबलें ले जाने दिया गया!
फर्डीनांट और दूसरे आठ भाइयों को लड़ाई के हथियार बनाने के लिए रॉटनो शहर के उस शिविर में भेजा गया जो ज़ाकसनहाउज़न की निगरानी में आता था। हालाँकि उन्हें कई बार जान से मार डालने की धमकी दी गयी, फिर भी उन्होंने यह काम करने से साफ इनकार कर दिया। एक-दूसरे का विश्वास मज़बूत करने के लिए वे सुबह के वक्त आपस में बाइबल की आयतों पर बातचीत करते थे। वे भजन 18:2 जैसी आयत पर चर्चा करते, और फिर दिन-भर उस पर मनन करते थे। इससे उन्हें आध्यात्मिक बातों पर मन लगाने में मदद मिली।
आखिरकार, दनदनाती तोपों और गोलियों की आवाज़ ने मित्र-राष्ट्रों और रूस की सेना के आने का संदेशा दिया। रूसी सेना सबसे पहले उस शिविर पर पहुँची जहाँ फर्डीनांट और दूसरे भाइयों को रखा गया था। उन्होंने कैदियों को खाना दिया और उन्हें शिविर छोड़कर जाने का हुक्म दिया। और अप्रैल 1945 के आखिर में, रूसी सेना ने कैदियों को अपने-अपने घर लौटने की इजाज़त दे दी।
परिवार का एक होना
जून 15 को फर्डीनांट नेदरलैंड्स पहुँचे। ग्रॉनिंगन के भाइयों ने उनका बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। फर्डीनांट को जल्द ही मालूम पड़ा कि हम ज़िंदा हैं, और देश के किसी इलाके में रह रहे हैं। हमें भी उनके लौटने की खबर मिली। उनके इंतज़ार में हमारी आँखें थक चुकी थीं। लेकिन आखिरकार वह दिन भी आया जब हमारी नन्ही रूत ने चिल्लाकर कहा: “मम्मी, देखो दरवाज़े पर कोई खड़ा है!” वे कोई और नहीं बल्कि मेरे प्यारे पति और बच्चों के डैडी थे!
इससे पहले कि हम एक आम परिवार की तरह दोबारा ज़िंदगी शुरू करते, हमें कई समस्याओं का हल करना था। हमारे पास रहने की जगह नहीं थी, मगर इससे भी बड़ी मुश्किल थी, नेदरलैंड्स के नागरिक बनने के लिए परमिट हासिल करना। हम जर्मन थे, इसलिए नेदरलैंड्स के अफसरों ने कई सालों तक हमारे साथ अछूतों जैसा व्यवहार किया। मगर आखिर में हम किसी तरह यहाँ बस गए और वो ज़िंदगी जीने लगे जिसके लिए हम काफी समय से तरस रहे थे—एक परिवार के तौर पर यहोवा की सेवा करना।
“मेरा भरोसा यहोवा ही पर है”
बाद के सालों में, जब भी फर्डीनांट और मैं अपने उन दोस्तों से मिलते जो हमारी तरह मुसीबतों के दौर से गुज़रे थे, तो हम याद करते कि कैसे यहोवा ने उस मुश्किल समय में प्यार से हमारा मार्गदर्शन किया था। (भजन 7:1) हम बेहद खुश थे कि गुज़रे सालों के दौरान यहोवा ने हमें राज्य के कामों को आगे बढ़ाने का मौका दिया। हम अकसर कहते थे, हम कितने खुश हैं कि हमने अपनी जवानी यहोवा की पवित्र सेवा में लगायी।—सभोपदेशक 12:1.
जब नात्ज़ियों के ज़ुल्मों-सितम का दौर खत्म हुआ, तो उसके बाद फर्डीनांट और मैं 50 से भी ज़्यादा साल तक यहोवा की सेवा साथ मिलकर करते रहे। उन्होंने धरती पर अपना जीवन दिसंबर 20, 1995 को पूरा किया। बहुत जल्द मैं 98 साल की हो जाऊँगी। मैं हर दिन यहोवा का शुक्रिया अदा करती हूँ कि उन मुश्किल सालों के दौरान हमारे बच्चों ने हमारा अच्छा साथ दिया। और इस बात के लिए भी धन्यवाद करती हूँ कि आज मुझसे जितना बन पड़ता है, उतना मैं उसकी सेवा करके उसके नाम की महिमा कर पाती हूँ। यहोवा ने मुझ पर जो-जो उपकार किए हैं, उन सबके लिए मैं उसकी एहसानमंद हूँ और मेरी यह दिली-तमन्ना है कि मैं जीवन-भर अपने इस उसूल पर बनी रहूँ: “मेरा भरोसा यहोवा ही पर है।”—भजन 31:6.
[पेज 19 पर तसवीर]
अक्टूबर 1932 में फर्डीनांट के साथ
[पेज 19 पर तसवीर]
प्रचार में इस्तेमाल की जानेवाली “आलमीना” बोट और उसका नाविक दल
[पेज 22 पर तसवीर]
फर्डीनांट और बच्चों के साथ