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ब्लैक डेथ—मध्य-युगीन यूरोप का अभिशाप

ब्लैक डेथ—मध्य-युगीन यूरोप का अभिशाप

ब्लैक डेथमध्य-युगीन यूरोप का अभिशाप

फ्रांस के सजग होइए! संवाददाता द्वारा

सन्‌ 1347 में एक महामारी ने पूर्वी एशिया को पूरी तरह तबाह कर दिया था पर उसके बाद वह यूरोप की पूर्वी सीमा पर भी तबाही मचाने लगी थी।

क्रिमीया प्रायद्वीप का काफा जो आज फीडोसिया कहलाता है, जेनोवा के लोगों का व्यापार का एक बड़ा केन्द्र था। मंगोल लोग, इस बड़े व्यापार केन्द्र पर कब्ज़ा करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने इस शहर पर धावा बोल दिया। लेकिन उनकी फौज में प्लेग फैल गया और उन्हें भागने पर मजबूर होना पड़ा। मगर जाते-जाते उन्होंने जो हमला किया उसने पूरे यूरोप में मौत का एक तांडव शुरू कर दिया। उन्होंने प्लेग से मरे अपने सैनिकों की ताज़ा लाशों को काफा शहर की चार-दीवारी में फेंक दिया। अब शहर के अंदर बुरी तरह प्लेग फैलने लगा और जेनोवा के सैनिक अपनी जान बचाने के लिए शहर छोड़कर अपनी-अपनी नौकाओं में भाग निकले। मगर वे जिन-जिन बंदरगाहों से गुज़रे, वहाँ प्लेग फैलाते गए।

चंद महीनों के अंदर ही पूरे यूरोप में मौत का काला साया मँडराने लगा। यह महामारी बड़ी तेज़ रफ्तार से उत्तर अफ्रीका, इटली, स्पेन, इंग्लैंड, फ्रांस, आस्ट्रिया, हंगरी, स्विट्‌ज़रलैंड, जर्मनी, स्कैन्डिनेविया और बॉल्टिक श्रेत्र में फैल गई। करीब ढाई सालों में देखते-ही-देखते 2.5 करोड़ लोग यानी यूरोप की एक चौथाई आबादी इस बीमारी की भेंट चढ़ गई। इस बीमारी को ब्लैक डेथ * नाम दिया गया है, जिसने “दुनिया में ऐसी तबाही मचा दी थी जैसी पहले कभी नहीं देखी गई।”

बरबादी कैसी फैली

प्लेग के इस तरह तेज़ी से फैलने की कई वज़ह थीं। लोगों के धार्मिक विश्‍वास ने आग में घी का काम किया। जैसे रोमन कैथोलिक धर्म की शोधन-स्थान या परगेट्री की शिक्षा को ही ले लीजिए। फ्रांस के इतिहासकार ज़ाक ले गॉफ का कहना है “13वीं सदी के आखिर तक परगेट्री की शिक्षा चारों तरफ फैल चुकी थी।” और 14वीं सदी की शुरूआत में जब लेखक दान्ते ने द डिवाइन कॉमॆडी नामक किताब लिखी जिसमें नरक और परगेट्री के बारे में भयानक ब्यौरा दिया गया तो इस विश्‍वास को और भी बढ़ावा मिला। इसका नतीजा यह हुआ कि लोग इस प्लेग को परमेश्‍वर का प्रकोप मानने लगे। उन्होंने सोचा कि वे इसमें कुछ नहीं कर सकते। ऐसे अंधविश्‍वास के माहौल में यह रोग और भी फैलता गया। जैसा कि फिलिप ज़ीग्लर ने अपनी किताब, द ब्लैक डेथ में कहा: “लोगों को उनके अपने विश्‍वास ने ही बरबाद कर डाला।”

दूसरी वज़ह थी यूरोप में बार-बार फसलों का खराब होना। इस वज़ह से वहाँ के लोगों को अच्छी खुराक नहीं मिल सकी और उनके कमज़ोर शरीर इस भयानक रोग से नहीं लड़ पाए।

प्लेग का फैलना

पोप क्लॆमॆंट VI के अपने डॉक्टर, गी द शौल्याक ने लिखा था कि यूरोप में फैला प्लेग दो किस्म का था। “पहले किस्म को न्यूमौनिक कहते हैं और इससे मरीज़ को तेज़ बुखार और खून की उलटी होती है और तीन दिन के अंदर ही उसकी मौत हो जाती है। यह पहले किस्म का प्लेग यूरोप में सिर्फ दो महीनों तक रहा। दूसरे किस्म को ब्यूबौनिक कहते हैं। इसमें भी मरीज़ को बुखार चढ़ता है, लेकिन साथ ही उसके शरीर में खासकर जाँघों के जोड़ और बगल में गिलटी निकल आती है जिसमें पस भर जाता है। इससे मरीज़ पाँच दिन में ही मर जाता है। इस दूसरी किस्म के प्लेग ही ने सबसे ज़्यादा लोगों की जान ली।” इसे रोकने में सभी डॉक्टर नाकाम रहे।

नतीजा यह हुआ कि हज़ारों लोग इस रोग के शिकार हो गए। इस डर से कि कहीं उन्हें भी यह रोग न लग जाए बहुत-से लोग अपना सब कुछ छोड़-छाड़कर दूसरी जगहों में भाग गए। भागनेवालों में से सबसे पहले रईस लोग, सरकारी अधिकारी और चर्च के पादरी थे। मगर सभी पादरी नहीं भागे, कुछ ने तो अपने ही मठों में पनाह ली, इस उम्मीद से कि वहाँ रहने से उनकी जान बच जाएगी।

इस दहशत के माहौल में सोने-पे-सुहागे का काम पोप ने किया। उसने सन्‌ 1350 को पवित्र वर्ष घोषित कर दिया। उसने कहा कि इस साल जो भी रोम आएगा उसे सीधे स्वर्ग जाने का मौका मिलेगा। सैकड़ों-हज़ारों श्रद्धालु इस पवित्र यात्रा पर निकल पड़े और उनके साथ-साथ यह रोग भी फैलता चला गया।

सब कोशिशें बेकार

दरअसल यह रोग क्यों होता है इसके बारे में किसी को भी पता नहीं था इसलिए इसे रोकने के लिए कोई भी कुछ नहीं कर पाया। लेकिन ज़्यादातर लोगों को इतना तो पता लग गया था कि प्लेग के मरीज़ के कपड़ों को छूने, पहनने या फिर उसके पास जाने से यह रोग फैलता है। दूसरी तरफ कुछ लोग तो यह भी सोचने लगे थे कि अगर किसी रोगी की नज़र ही उन पर पड़ गई तो उन्हें प्लेग हो जाएगा। इटली के फ़्लॉरॆन्स शहर के लोग तो यह भी सोच बैठे थे कि यह बीमारी असल में कुत्ते-बिल्लियों की वज़ह से फैल रही है। इसलिए उन्होंने धड़ाधड़ सभी कुत्ते-बिल्लियों को मारना शुरू कर दिया। लेकिन वे एक बहुत बड़ी गलती कर रहे थे क्योंकि इस बीमारी की जड़ तो चूहे थे और कुत्ते-बिल्लियों के मरने से चूहों का राज हो गया और प्लेग हर जगह फैलने लगा।

जब अनगिनित लोग मौत के मुँह में जाने लगे, तब इस रोग से बचने के लिए बाकी लोगों ने क्या-क्या जतन नहीं किए! कई लोग परमेश्‍वर से दया की भीख माँगने लगे। स्त्रियों और पुरुषों ने इस उम्मीद में अपना सब कुछ चर्च को दान कर दिया कि परमेश्‍वर खुश होकर उन्हें इस विपत्ति से बचा लेगा। कुछ ने सोचा कि अगर वे मर भी गए तो परमेश्‍वर उनके इस दान को याद करेगा और उन्हें स्वर्ग में जगह देगा। इससे प्लेग तो नहीं गया मगर हाँ, रातों-रात चर्च के पास धन का अंबार ज़रूर इकट्ठा हो गया। कई लोगों ने तावीज़ पहनना शुरू कर दिया और अपने घरों में यीशु की मूर्तियाँ रखने लगे। कइयों ने जादू का सहारा लिया तो कइयों ने इत्र, सिरके और कुछ खास दवाओं का। उन्होंने हर झूठी-सच्ची बात पर यकीन किया। और-तो-और एक इलाज जो बहुत मशहूर हुआ वह था अपने शरीर का खून निकाल देना। दूसरी तरफ यूनिवर्सिटी ऑफ पैरिस में डॉक्टरी पढ़नेवाले छात्रों का यह दावा था कि प्लेग, आकाश में ग्रहों दशा की वज़ह से हुआ है। मगर इन कोरी बातों और “नीम-हकीम नुस्खों” से कुछ नहीं हुआ।

ज़बरदस्त प्रभाव

इस विपत्ति को खत्म होने में पाँच साल लग गए। मगर उस सदी का अंत होने से पहले यह रोग कम-से-कम चार बार और फैला। इसका अंजाम पहले विश्‍वयुद्ध की तरह ही भयानक था। सन्‌ 1996 में छपी किताब द ब्लैक डेथ इन्‌ इंग्लैंड कहती है: “आज के सभी इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि सन्‌ 1348 के बाद जब यह प्लेग शुरू हुआ तो समाज और उसकी अर्थ-व्यवस्था पर इसका ज़बरदस्त असर पड़ा।” इस प्लेग ने बहुत-से इलाकों में आबादी को मिटा दिया और उन्हें फिर से आबाद होने में सदियाँ लग गईं। आबादी कम हुई तो मज़दूर भी कम हो गए। इससे खेतों में काम करनेवालों की मज़दूरी आसमान छूने लगी। नतीजा यह हुआ कि रईस ज़मीनदारों का सारा पैसा इनकी मज़दूरी को चुकाने में लग गया जिससे कि मध्य-युग के ज़मीनदारी या सामंत-शाही का अन्त हो गया।

इस प्लेग की वज़ह से राजनीति, धर्म और समाज में भी देखने लायक परिवर्तन आए। प्लेग से पहले इंग्लैंड के शिक्षित लोग फ्राँसीसी भाषा का इस्तेमाल करते थे मगर प्लेग ने बड़ी तादाद में फ्राँसीसी सिखानेवालों की जान ले ली। इसलिए सिखानेवालों की कमी का नतीजा यह हुआ कि प्लेग के बाद ब्रिटेन में फ्राँसीसी भाषा से ज़्यादा अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाने लगा। धर्म में भी कई बदलाव नज़र आने लगे। पादरियों की भारी कमी की वज़ह से “चर्च ने हर ऐरे-गैरे को पादरी बना दिया।” जैसे कि फ्रांस के इतिहासकार शाकलीन ब्रॉसले कहती है “चर्च के शिक्षा संस्थानों के बंद होने से धर्म सुधार आंदोलन को हवा मिली।”

इस प्लेग का असर हमें कला के क्षेत्र में भी नज़र आता है। हर कला का सबसे आम विषय था मौत। यहाँ तक कि भूत-प्रेतों का नाचना मौत का आम प्रतीक बन गया था। इस प्लेग से जो बच निकले थे उन्होंने सोचा कि कल का कोई भरोसा नहीं इसलिए आज ही जितनी मौज-मस्ती कर सकते हो कर लो। इसलिए उन्होंने ऐश करने और मज़े लूटने के नाम पर हर हद पार कर दी। जहाँ तक लोगों की धर्म में आस्था का सवाल है तो द ब्लैक डेथ किताब कहती है कि प्लेग को रोकने में चर्च की नाकामी से लोगों का उस पर से विश्‍वास उठ गया “आम इंसान को लगा कि चर्च ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।” दुनिया का चाल-चलन बद से बदतर होने लगा। कुछ इतिहासकारों का कहना हैं कि इस प्लेग की वज़ह से ही एक सामाजिक आंदोलन शुरू हुआ। अब लोग आर्थिक रूप से खुद पर निर्भर रहना चाहते थे किसी सरकार या सामंत पर नहीं। उन्होंने अपने व्यापार को बढ़ावा दिया जिससे पूँजीवाद शुरू हुआ।

प्लेग के बाद हर देश की सरकार हर जगह को साफ सुथरा रखने के लिए काम पर जुट गई। वेनिस शहर में तो सड़कों की सफाई की गई। और फ्रांस के राजा जॉन II को, जिसे जॉन द गुड्ड भी कहा जाता जब पता चला कि प्राचीन ऐथन्स के एक डॉक्टर ने सड़कों की सफाई करवा कर वहाँ के लोगों को प्लेग से बचाया था तो उसने भी वही किया। सड़कों के किनारे बड़े-बड़े नाले और गंदी नालियों को साफ किया गया।

क्या प्लेग खत्म हो चुका है?

सन्‌ 1894 में कहीं जाकर फ्राँसीसी जीवाणु-विज्ञानी आलॆक्सान्द्रे यरसन ने उस बैक्टीरिया का पता लगाया जिसकी वज़ह से यह प्लेग फैल रहा था। और उसी के नाम पर इस बैक्टीरिया का नाम यरसिनया पेस्टिस रखा गया। चार साल बाद एक और फ्राँसीसी पॉल-लुई सीमॉन ने पता लगाया कि यह प्लेग एक तरह के पिस्सू से फैलता है जो कि चूहे और गिलहरी जैसे छोटे-छोटे जानवरों में पाए जाते हैं। इन खोजों से तुरन्त एक वैक्सीन तैयार की गई जिससे कुछ हद तक प्लेग से लड़ने में मदद मिली।

क्या इस प्लेग का नामो-निशान पूरी तरह से मिट गया? बिल्कुल नहीं। सन्‌ 1910 के शीतकाल मन्चूरिया में करीब 50,000 लोग इस प्लेग से मरे। विश्‍व स्वास्थ्य संस्था भी यह रिपोर्ट देती है कि हर साल हज़ारों लोग इस प्लेग के शिकार होते हैं और यह बढ़ती हुई तादाद कम होने का नाम ही नहीं लेती। इस प्लेग से जुड़े कई नयी-नयी बीमारियों का भी पता चला जिन पर इलाज का ज़रा भी असर नहीं होता। जी हाँ, जब तक लोग साफ सफाई पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इस प्लेग का पूरी तरह से सफाया नहीं होगा। शाकलीन ब्रॉसले और ऑन्री मोलारे ने मिलकर एक किताब तैयार की जिसका नाम है पुर्कवा ला पेस्ट? ला रा, ला पीउस ए ला ब्यूबॉन (प्लेग क्यों? चूहे, पिस्सू गिलटी क्यों)। इस किताब के आखिर में यह लिखा गया है: “दुःख की बात यह है कि इस प्लेग ने सिर्फ मध्य युगों में ही यूरोप में दहशत और बरबादी नहीं मचायी. . . बल्कि यह भविष्य में भी इंसानों के लिए एक खतरा बन सकता है।”

[फुटनोट]

^ उस समय के लोग इसे बड़ी महामारी या छूत का रोग कहते थे।

[पेज 17 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

स्त्री और पुरुषों ने इस उम्मीद में चर्च को अपना सब कुछ दान कर दिया कि परमेश्‍वर उन्हें इस भयानक बीमारी से बचाएगा

[पेज 18 पर बक्स/तसवीर]

खुद को कोड़े मारनेवाला पंथ

जब यह प्लेग चारों ओर फैल गया तो लोगों को लगा कि परमेश्‍वर उनको सज़ा दे रहा है और इसलिए परमेश्‍वर को खुश करने के लिए कुछ लोगों ने अपने आप को चाबुकों से मारा। इस दौरान खुद को कोड़े मारनेवाला पंथ, जिसके 800,000 सदस्य थे बहुत ही मशहूर हुआ। इस पंथ के लोगों को औरतों से बातें करने, नहाने और कपड़े बदलने की मनाही थी और साथ ही दिन में दो बार उन्हें सरे आम अपने आपको कोड़े लगाने होते थे।

मिडिवल हियरसी किताब कहती है कि “प्लेग के भयभीत लोग बचना चाहते थे भले ही इसके लिए अपने आपको कोड़े लगाने पड़ें।” इस पंथ ने चर्च में दी जानेवाली उपाधियों को गलत बताया साथ ही इसने दावा किया कि बिशप के हाथों में पूरी ताकत नहीं होनी चाहिए। इसलिए इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं थी कि सन्‌ 1349 में पोप ने इस पंथ का विरोध किया। मगर अंत में जब प्लेग ही खत्म हो गया तो यह पंथ भी अपने आप खत्म हो गया।

[तसवीर]

परमेश्‍वर को खुश करने के लिए यह पंथ अपने आपको कोड़े लगाता था

[चित्र का श्रेय]

© Bibliothèque Royale de Belgique, Bruxelles

[पेज 19 पर तसवीर]

फ्रांस के शहर मार्से में प्लेग

[चित्र का श्रेय]

© Cliché Bibliothèque Nationale de France, Paris

[पेज 19 पर तसवीर]

आलॆक्सान्द्रे यरसन ने उस बैसिलस का पता लगाया जिससे यह प्लेग फैला

[चित्र का श्रेय]

Culver Pictures