परमेश्वर की शिक्षा किस तरह उसके प्यार का सबूत है?
“यहोवा जिससे प्यार करता है उसे सुधारता भी है।”—इब्रा. 12:6.
गीत: 43, 20
1. बाइबल में शब्द “शिक्षा” का क्या मतलब है?
जब आप “शिक्षा” शब्द सुनते हैं, तो आपके मन में क्या खयाल आता है? कई लोगों को लगता है कि इसका मतलब किसी को कुछ सिखाना है। लेकिन शिक्षा के और भी मतलब हैं जैसे सुधारना, समझाना और सज़ा देना। इसलिए जब यहोवा हमें शिक्षा देता है तो कभी-कभी वह सज़ा भी देता है। मगर यह सज़ा कठोर नहीं होती, न ही इससे हमें कोई नुकसान होता है, बल्कि यह इस बात का सबूत है कि वह हमसे प्यार करता है और चाहता है कि हम हमेशा का जीवन पाएँ। (इब्रा. 12:6) बाइबल बताती है कि शिक्षा पाना अच्छी बात है और अकसर इसका ज़िक्र ज्ञान, बुद्धि, प्यार और जीवन के साथ करती है। (नीति. 1:2-7; 4:11-13) दरअसल शिक्षा देने का मुख्य मकसद है, प्रशिक्षण देना ठीक जैसे प्यार करनेवाले माँ-बाप अपने बच्चों को देते हैं।
2, 3. प्रशिक्षण देने में सिखाना और कभी-कभी सज़ा देना किस तरह शामिल है? (लेख की शुरूआत में दी तसवीर देखिए।)
2 ज़रा इस मिसाल पर ध्यान दीजिए। जॉनी नाम का एक छोटा लड़का घर में फुटबॉल से खेल रहा है। उसकी माँ उससे कहती है, “बेटा, घर में मत खेलो। कुछ टूट जाएगा।” लेकिन वह माँ की नहीं सुनता। फिर अचानक उसकी बॉल एक फूलदान से जा टकराती है और फूलदान गिरकर टूट जाता है। अब जॉनी की माँ क्या करती है? वह उसे बिठाकर समझाती है कि उसने क्या गलती की
है। वह चाहती है कि जॉनी इस बात को समझे कि माँ-बाप का कहना मानना कितना ज़रूरी है और वे जो भी नियम बनाते हैं उसके भले के लिए ही हैं। जॉनी यह सबक अच्छी तरह सीख जाए, इसके लिए माँ फैसला करती है कि उसे कुछ सज़ा मिलनी चाहिए। वह कुछ समय के लिए उससे बॉल ले लेती है। जॉनी को बहुत बुरा लगता है लेकिन उसे समझ आ जाता है कि मम्मी-पापा की बात न सुनने के बुरे अंजाम होते हैं।3 एक मसीही होने के नाते हम “परमेश्वर के घराने” का हिस्सा हैं। (1 तीमु. 3:15) यहोवा हमारा पिता है, इसलिए उसे हक है कि वह हमारे लिए सही-गलत के स्तर ठहराए और जब हम उन स्तरों पर नहीं चलते, तो हमें सुधारे। इसके अलावा, यहोवा हमें अपनी गलतियों के अंजाम भुगतने देता है ताकि हमें एहसास हो कि उसकी आज्ञा मानना कितना ज़रूरी है। (गला. 6:7) परमेश्वर हमसे बहुत प्यार करता है और नहीं चाहता कि हम दुख झेलें।—1 पत. 5:6, 7.
4. (क) एक इंसान को किस तरह प्रशिक्षण मिलता है? (ख) इस लेख में हम क्या चर्चा करेंगे?
4 जब किसी को बाइबल से सिखाया जाता है, तो उसे ज़रूरी प्रशिक्षण मिलता है और वह ज़िंदगी में अपने लक्ष्य तक पहुँच पाता है। जैसे, एक बच्चा या बाइबल विद्यार्थी मसीह का चेला बनने का अपना लक्ष्य हासिल कर पाता है। बाइबल की मदद से एक विद्यार्थी सही-गलत के स्तर समझता है और ‘वे सारी बातें मानना सीखता है जिनकी आज्ञा यीशु ने दी थी।’ (मत्ती 28:19, 20; 2 तीमु. 3:16) इस तरह के प्रशिक्षण पर यहोवा की आशीष रहती है। यही नहीं, आगे चलकर ऐसे विद्यार्थी दूसरों को भी मसीह का चेला बनना सिखाते हैं। (तीतुस 2:11-14 पढ़िए।) अब आइए तीन अहम सवालों पर चर्चा करें: (1) यहोवा की शिक्षा किस तरह उसके प्यार का सबूत है? (2) यहोवा ने जिन लोगों को शिक्षा दी या सुधारा उनसे हम क्या सीख सकते हैं? (3) जब हम दूसरों को सिखाते या समझाते हैं, तो हम यहोवा और उसके बेटे की मिसाल पर कैसे चल सकते हैं?
यह परमेश्वर के प्यार का सबूत है
5. यहोवा की तरफ से मिलनेवाली शिक्षा किस तरह उसके प्यार का सबूत है?
5 यहोवा हमसे प्यार करता है और चाहता है कि हम उसके प्यार में बने रहें और जीवन की राह पर चलते रहें। यही वजह है कि वह हमें सुधारता है, सिखाता है और प्रशिक्षण देता है। (1 यूह. 4:16) लेकिन वह कभी हमें नीचा नहीं दिखाता, न ही ऐसा महसूस कराता है कि हम किसी लायक नहीं। (नीति. 12:18) इसके बजाय, वह हमारे बढ़िया गुणों पर ध्यान देता है और यह फैसला हम पर छोड़ता है कि हम उसकी शिक्षा कबूल करेंगे या नहीं। क्या आप इस बात को समझते हैं कि बाइबल, बाइबल के प्रकाशनों, मसीही माता-पिताओं या प्राचीनों से मिलनेवाली सलाह दरअसल यहोवा के प्यार का सबूत है? देखा जाए तो जब हम कोई गलत कदम उठाते हैं और हमें इसका एहसास नहीं होता, तब प्राचीन बड़ी कोमलता और प्यार से हमें सुधारने की कोशिश करते हैं। इस तरह वे यहोवा के प्यार की मिसाल पर चलते हैं।—गला. 6:1.
6. किसी को सुधारने के लिए उससे ज़िम्मेदारियाँ ले लेना कैसे यहोवा के प्यार का सबूत है?
6 कभी-कभी किसी को सुधारने के लिए सिर्फ सलाह देना काफी नहीं होता। अगर उसने कोई गंभीर पाप किया है, तो उससे मंडली की ज़िम्मेदारियाँ भी ले ली जाती हैं। यह भी यहोवा के प्यार का सबूत है। वह कैसे? हो सकता है, इस घटना के बाद उसे एहसास हो कि उसे बाइबल का अध्ययन करने, मनन करने और प्रार्थना करने में और भी समय बिताना चाहिए। ऐसा करने से यहोवा के साथ उसका रिश्ता मज़बूत होगा। (भज. 19:7) फिर वक्त के गुज़रते शायद उसे अपनी ज़िम्मेदारियाँ दोबारा मिल जाएँ। बहिष्कार का इंतज़ाम भी यहोवा के प्यार का सबूत है क्योंकि इससे मंडली की हिफाज़त होती है। (1 कुरिं. 5:6, 7, 11) यहोवा जब भी किसी को सुधारता है तो इसके पीछे वाजिब कारण होता है। इससे बहिष्कृत व्यक्ति को एहसास होता है कि उसने कितना गंभीर पाप किया है और वह शायद पश्चाताप करने के लिए उभारा जाए।—प्रेषि. 3:19.
यहोवा की शिक्षा से हमें फायदा होता है
7. शेबना कौन था और उसमें कौन-सा बुरा गुण बढ़ने लगा?
7 यहोवा से मिलनेवाली शिक्षा कितनी ज़रूरी है, इसे समझने के लिए आइए दो आदमियों पर ध्यान दें जिन्हें यहोवा ने सुधारा था। एक है, शेबना जो राजा हिजकियाह के दिनों में जीया था और दूसरा है, हमारे ज़माने का एक भाई जिसका नाम ग्रेहैम है। आइए पहले शेबना पर गौर करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि शेबना राजा हिजकियाह के ‘महल का प्रबंधक’ था और उसके पास काफी अधिकार था। (यशा. 22:15) लेकिन उसमें घमंड आ गया और वह दूसरों की नज़र में छाना चाहता था। उसने अपने लिए एक आलीशान कब्र भी खुदवायी और “शानदार रथ” पर सवारी करने लगा।—यशा. 22:16-18.
8. यहोवा ने शेबना को किस तरह सुधारा और इसका क्या नतीजा हुआ?
8 शेबना अपनी बड़ाई चाहता था इसलिए यहोवा ने उससे उसका ओहदा लेकर एल्याकीम को दे दिया। (यशा. 22:19-21) यह उस वक्त की बात है जब अश्शूर का राजा सनहेरीब यरूशलेम पर हमला करने की तैयारी कर रहा था। कुछ समय बाद, सनहेरीब ने अपने कुछ अधिकारियों के साथ एक बड़ी सेना भेजी ताकि यहूदी लोगों में डर समा जाए और राजा हिजकियाह अपने हथियार डाल दे। (2 राजा 18:17-25) अश्शूरी अधिकारियों से मिलने के लिए हिजकियाह ने एल्याकीम के साथ दो और अधिकारियों को भेजा। इनमें से एक था शेबना जो अब राज-सचिव के पद पर था। इस किस्से से मालूम पड़ता है कि शेबना ने खुद को नम्र किया था। वह यह सोचकर कड़वाहट से नहीं भर गया कि उसे ऊँचे ओहदे से हटा दिया गया है। इसके बजाय, उसने खुशी-खुशी एक छोटा ओहदा स्वीकार किया। हम शेबना के किस्से से क्या सबक सीख सकते हैं?
9-11. (क) शेबना के किस्से से हम क्या सबक सीखते हैं? (ख) यहोवा जिस तरह शेबना के साथ पेश आया, उससे आपको क्या हौसला मिलता है?
9 हम तीन सबक सीख सकते हैं। पहला, शेबना ने घमंड की वजह से अपना ओहदा गँवा दिया। इससे बाइबल की यह बात सच साबित होती है, “विनाश से पहले घमंड और ठोकर खाने से पहले अहंकार होता है।” (नीति. 16:18) शायद हमारे पास भी मंडली में कुछ खास ज़िम्मेदारियाँ हों और भाई-बहन हमें बहुत तवज्जह दें। अगर ऐसा है, तो क्या हम नम्र बने रहेंगे? क्या हम याद रखेंगे कि हमारे पास जो काबिलीयतें हैं और हम जो कुछ कर पाते हैं, उसका सारा श्रेय यहोवा को जाता है? (1 कुरिं. 4:7) प्रेषित पौलुस ने खबरदार किया था, “मैं तुममें से हरेक से जो वहाँ है, यह कहता हूँ कि कोई भी अपने आपको जितना समझना चाहिए, उससे बढ़कर न समझे। इसके बजाय . . . सही सोच बनाए रखे।”—रोमि. 12:3.
10 दूसरा, यहोवा ने शेबना को फटकारा। उसने शायद ऐसा इसलिए किया क्योंकि उसे भरोसा था कि शेबना बदल सकता है। (नीति. 3:11, 12) यह उन लोगों के लिए एक अच्छी सीख है जो अपनी ज़िम्मेदारियों से हाथ धो बैठते हैं। वे गुस्से या कड़वाहट से भरने के बजाय, पहले की तरह यहोवा की सेवा जोश से कर सकते हैं। वे यह नज़रिया अपना सकते हैं कि यहोवा की शिक्षा उसके प्यार का सबूत है। याद रखिए, अगर हम नम्र बने रहेंगे, तो हमारा पिता हमें ज़रूर आशीष देगा। (1 पतरस 5:6, 7 पढ़िए।) यहोवा प्यार से हमें सुधारकर ढालने की कोशिश करता है, इसलिए आइए हम उसके हाथों में नरम मिट्टी की तरह बनें।
11 तीसरा, यहोवा जिस तरह शेबना के साथ पेश आया उससे हम एक ज़रूरी सबक सीख सकते हैं। उसने जिस तरह शेबना को सुधारा उससे साफ ज़ाहिर होता है कि वह पाप से नफरत करता है, पाप करनेवाले से नहीं। वह लोगों में अच्छाई देखता है। अगर आप एक माता-पिता या प्राचीन हैं, तो क्या आप यहोवा की मिसाल पर चलेंगे?—यहू. 22, 23.
12-14. (क) जब कुछ लोगों को सुधारा जाता है, तो वे कैसा रवैया दिखाते हैं? (ख) परमेश्वर के वचन की मदद से एक भाई कैसे अपना रवैया बदल पाया और इसका क्या नतीजा निकला?
12 दुख की बात है कि जब कुछ लोगों को सुधारा जाता है, तो वे बुरा मान जाते हैं और परमेश्वर और उसकी मंडली से दूर चले जाते हैं। (इब्रा. 3:12, 13) क्या इसका मतलब है कि अब कोई उनकी मदद नहीं कर सकता? यह बात सच नहीं। ग्रेहैम की मिसाल पर गौर कीजिए जिसका बहिष्कार किया गया और बाद में जिसे बहाल किया गया। लेकिन बहाल होने के बाद उसने प्रचार और सभाओं में जाना बंद कर दिया। एक प्राचीन ने ग्रेहैम से दोस्ती करने की कोशिश की और उन दोनों में अच्छी दोस्ती हो गयी। फिर कुछ समय बाद ग्रेहैम ने उस प्राचीन से उसके साथ बाइबल अध्ययन करने के लिए कहा।
13 वह प्राचीन याद करते हुए कहता है, “ग्रेहैम की समस्या थी, उसका घमंड। वह उन प्राचीनों से नाराज़ था जिन्होंने उसके बहिष्कार का मामला निपटाया था और वह उनमें नुक्स निकालने लगा था। इसलिए अगले कुछ हफ्तों में हमने अध्ययन के दौरान घमंड और उसके अंजामों के बारे में कुछ आयतों पर चर्चा की। ग्रेहैम परमेश्वर के वचन के आईने में खुद को साफ-साफ देखने लगा और उसने जो देखा उसे वह पसंद नहीं आया। इसका उस पर क्या ही गहरा असर हुआ! उसने कबूल किया कि उसकी आँख में घमंड का ‘लट्ठा’ पड़ा था और वह समझ ही नहीं पाया कि उसका गलत रवैया ही समस्या की असली जड़ थी। उसने खुद को बदलना शुरू किया। वह लगातार सभाओं में जाने लगा, परमेश्वर के वचन का गहराई से अध्ययन करने लगा और रोज़ प्रार्थना करने लगा। इतना ही नहीं, परिवार का मुखिया होने के नाते वह उपासना में भी अगुवाई करने लगा और यह देखकर उसकी पत्नी और बच्चे बहुत खुश हुए।”—लूका 6:41, 42; याकू. 1:23-25.
14 उस प्राचीन ने यह भी कहा, “एक दिन ग्रेहैम ने मुझसे कुछ ऐसी बात कही जो मेरे दिल को छू गयी। उसने कहा, ‘मैं सालों से सच्चाई जानता हूँ और मैं एक पायनियर भी रह चुका हूँ। लेकिन अब जाकर मैं सच्चे दिल से कह सकता हूँ कि मैं यहोवा से प्यार करता हूँ।’” इसके कुछ समय बाद, ग्रेहैम को सभाओं में माइक सँभालने का काम सौंपा गया। वह इस ज़िम्मेदारी को पाकर बहुत खुश हुआ। प्राचीन कहता है, “ग्रेहैम से मैंने सीखा कि जब एक व्यक्ति नम्र होकर परमेश्वर की शिक्षा कबूल करता है, तो परमेश्वर उसे ढेरों आशीषें देता है।”
सिखाते-समझाते वक्त परमेश्वर और मसीह की मिसाल पर चलिए
15. हमें क्या करना होगा ताकि लोग खुशी-खुशी हमारी सलाह कबूल करें?
15 एक अच्छा शिक्षक बनने के लिए एक अच्छा विद्यार्थी होना ज़रूरी है। (1 तीमु. 4:15, 16) उसी तरह अगर यहोवा हमारे ज़रिए किसी को सलाह देता है या सुधारता है, तो ज़रूरी है कि हम खुद नम्र रहें और उसके मार्गदर्शन को मानें। हमारी नम्रता देखकर दूसरे हमारा आदर करेंगे और हमारी सलाह को खुशी-खुशी मानेंगे। इस मामले में यीशु एक अच्छी मिसाल है। आइए उसकी मिसाल पर गौर करें।
16. सिखाने और सुधारने के मामले में हम यीशु से क्या सीख सकते हैं?
16 यीशु हमेशा अपने पिता की आज्ञा मानता था, मत्ती 26:39) यही नहीं, उसने नम्र होकर कबूल किया कि वह जो बुद्धि-भरी बातें सिखा रहा है, वे पिता की तरफ से हैं। (यूह. 5:19, 30) यहोवा के आज्ञाकारी रहने और नम्र होने की वजह से यीशु एक दयालु शिक्षक बना और नेकदिल लोग उसके पास खिंचे चले आए। (मत्ती 11:29 पढ़िए।) यीशु ने प्यार-भरे शब्दों से निराश और कमज़ोर लोगों का हौसला बढ़ाया। (मत्ती 12:20) इतना ही नहीं, जब उसके चेले आपस में झगड़ रहे थे कि उनमें कौन बड़ा है, तो उन पर गुस्सा करने के बजाय उसने बड़े प्यार से उनकी गलत सोच सुधारी।—मर. 9:33-37; लूका 22:24-27.
तब भी जब ऐसा करना बहुत मुश्किल था। (17. मंडली की अच्छी देखभाल करने के लिए प्राचीनों में कौन-से गुण होने चाहिए?
17 जब कभी प्राचीनों को किसी भाई या बहन को बाइबल के आधार पर सलाह देना होता है, तो उन्हें मसीह की मिसाल पर चलना चाहिए। इस तरह वे दिखाएँगे कि वे परमेश्वर और उसके बेटे के मार्गदर्शन में चलना चाहते हैं। प्रेषित पतरस ने अपनी चिट्ठी में लिखा, “तुम चरवाहों की तरह परमेश्वर के झुंड की देखभाल करो जो तुम्हें सौंपा गया है और निगरानी करनेवालों के नाते परमेश्वर के सामने खुशी-खुशी सेवा करो, न कि मजबूरी में। तुम तत्परता से सेवा करो, न कि बेईमानी की कमाई के लालच से। और जो परमेश्वर की संपत्ति हैं उन पर रौब मत जमाओ बल्कि झुंड के लिए एक मिसाल बनो।” (1 पत. 5:2-4) जब प्राचीन खुशी-खुशी परमेश्वर और मसीह के अधीन रहकर काम करते हैं, तो इससे उन्हें और उनकी निगरानी में रहनेवाले झुंड को भी फायदा होता है।—यशा. 32:1, 2, 17, 18.
18. (क) परमेश्वर माता-पिताओं से क्या उम्मीद करता है? (ख) वह किस तरह माता-पिताओं की मदद करता है?
18 परिवार में बच्चों को सिखाने और सुधारने के बारे में क्या? यहोवा परिवार के मुखियाओं से कहता है, “अपने बच्चों को चिढ़ मत दिलाओ बल्कि यहोवा की मरज़ी के मुताबिक उन्हें सिखाते और समझाते हुए उनकी परवरिश करो।” (इफि. 6:4) बच्चों को सिखाना और सुधारना क्यों ज़रूरी है? नीतिवचन 19:18 बताता है, “जब तक तेरे बेटे के सुधरने की उम्मीद है उसे सिखा, उसकी मौत के लिए ज़िम्मेदार मत बन।” यहोवा ने माता-पिताओं को ज़िम्मेदारी दी है कि वे अपने बच्चों को सिखाएँ-समझाएँ। अगर वे ऐसा न करें, तो उन्हें परमेश्वर को लेखा देना होगा। (1 शमू. 3:12-14) माता-पिता यकीन रख सकते हैं कि इस ज़िम्मेदारी को निभाने में यहोवा उनके साथ है। जब वे उससे प्रार्थना करते हैं, उसके वचन पर निर्भर रहते हैं और उसकी पवित्र शक्ति के मार्गदर्शन में चलते हैं, तो वह उन्हें बुद्धि और हिम्मत देता है।—याकूब 1:5 पढ़िए।
शांति से और हमेशा जीने के लिए क्या करें?
19, 20. (क) यहोवा की शिक्षा कबूल करने पर क्या आशीषें मिलती हैं? (ख) अगले लेख में हम क्या देखेंगे?
19 अगर हम यहोवा की शिक्षा कबूल करते हैं और दूसरों को सिखाते-समझाते वक्त परमेश्वर और यीशु की मिसाल पर चलते हैं, तो हमें बेशुमार आशीषें मिलेंगी। परिवार और मंडली में शांति का माहौल बना रहेगा। हरेक जन खुश रहेगा और महसूस करेगा कि सब उससे प्यार करते हैं और उसकी कदर करते हैं। यह सिर्फ एक झलक है कि भविष्य में कैसी शांति और खुशहाली होगी! (भज. 72:7) वाकई, यहोवा की शिक्षा हमें भविष्य के लिए तैयार कर रही है, जहाँ हम एक परिवार होकर हमेशा के लिए जीएँगे और यहोवा हमारा पिता होगा। (यशायाह 11:9 पढ़िए।) इस बात को याद रखने से हम यहोवा की शिक्षा के बारे में सही नज़रिया रख पाएँगे और वह यह कि उसकी शिक्षा उसके प्यार का बेहतरीन सबूत है।
20 अगले लेख में यहोवा की शिक्षा के बारे में और भी बातें बतायी गयी हैं। हम देखेंगे कि हम खुद को कैसे सुधार सकते हैं। हम यह भी जानेंगे कि हम शिक्षा ठुकराने से किस तरह दूर रह सकते हैं और इससे होनेवाले दुख से बच सकते हैं।