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क्या मेरी तरह शोक मनाना सामान्य है?

क्या मेरी तरह शोक मनाना सामान्य है?

अध्याय १६

क्या मेरी तरह शोक मनाना सामान्य है?

मिचॆल वह दिन याद करता है जब उसके पापा मरे थे: “मुझे बड़ा सदमा पहुँचा था। . . . ‘यह सच नहीं हो सकता,’ मैं अपने आपसे कहता रहा।”

संभवतः आपका कोई प्रियजन—एक जनक, भाई, बहन, या मित्र—मरा है। और सिर्फ़ दुःख लगने के बजाय, आपको क्रोध, उलझन, और डर भी लगता है। आँसू रोके नहीं रुकते। या आप अपनी पीड़ा को अन्दर ही समाए रखते हैं।

सचमुच, जब हमारा कोई प्रियजन मर जाता है तब भावात्मक रूप से प्रतिक्रिया दिखाना स्वाभाविक है। यीशु मसीह को भी जब अपने घनिष्ठ मित्र की मृत्यु के बारे में पता चला, तब उसके “आंसू बहने लगे” और वह अन्दर से “उदास” हो गया। (यूहन्‍ना ११:३३-३६; २ शमूएल १३:२८-३९ से तुलना कीजिए।) यह जानना कि दूसरों ने भी आप ही के जैसा महसूस किया है आपको अपने दुःख से ज़्यादा अच्छी तरह निपटने में मदद दे सकता है।

इनकार

शुरू-शुरू में आप शायद सुन्‍न हो जाएँ। संभवतः अन्दर कहीं गहराई में, आप आशा करते हैं कि यह सब बस एक बुरा सपना है, कि कोई आकर आपको जगा देगा और सब कुछ एकदम हमेशा के जैसा हो जाएगा। उदाहरण के लिए, सिन्डी की माँ कैंसर से मरी। सिन्डी बताती है: “मैंने स्वीकार ही नहीं किया है कि वह जा चुकी हैं। जब कोई ऐसी बात होती है जिसके बारे में अतीत में शायद मैंने उनके साथ बात की थी, तब मैं अपने आपसे यह कहते हुए पाती हूँ, ‘यह बात तो मुझे मम्मी को बतानी पड़ेगी।’”

शोकित व्यक्‍ति अकसर इससे इनकार करते हैं कि मृत्यु हो चुकी है। वे शायद यह भी सोचें कि अचानक वे मृत व्यक्‍ति को सड़क पर, चलती बस में, या ट्रेन में देखते हैं। कोई हलकी-सी समानता आशा जगा सकती है कि संभवतः यह सब एक भूल थी। याद रखिए, परमेश्‍वर ने मनुष्य को जीने के लिए बनाया था, मरने के लिए नहीं। (उत्पत्ति १:२८; २:९) सो यह एकदम सामान्य है कि हमें मृत्यु को स्वीकार करने में कठिनाई होती है।

“वह मेरे साथ यह कैसे कर सकती थी?”

चकित मत होइए यदि ऐसे भी क्षण होते हैं जब आपको मृत व्यक्‍ति पर थोड़ा गुस्सा आता है। सिन्डी याद करती है: “जब मम्मी मरीं, तब कभी-कभी मैं सोचती थी, ‘आपने हमें बताया भी नहीं कि आप मरने जा रही हैं। आप बस चली गयीं।’ मुझे लगा मैं त्याग दी गयी हूँ।”

एक भाई या बहन की मृत्यु भी ऐसी भावनाएँ जगा सकती है। “जो मर गया है उस पर गुस्सा करना एकदम पागलपन है,” कैरॆन कहती है, “लेकिन जब मेरी बहन मरी, तब मैं संभाल नहीं सकी। ऐसे विचार कि, ‘मुझे बिलकुल अकेला छोड़कर वह कैसे मर सकती थी? वह मेरे साथ यह कैसे कर सकती थी?’ मेरे मन में घूमते रहे।” कुछ यह पाते हैं कि वे सहोदर से गुस्सा हैं कि उसकी मृत्यु के कारण इतनी पीड़ा हुई है। मरने से पहले बीमार भाई या बहन को जो समय और ध्यान दिया गया था उस कारण कुछ युवा उपेक्षित महसूस करते हैं, संभवतः खिजते भी हैं। शोक-ग्रस्त माता-पिता, जो एक और बच्चा खोने के डर से अचानक ज़रूरत से ज़्यादा देखभाल करने लगते हैं, वे भी मृत के प्रति दुश्‍मनी भड़का सकते हैं।

“काश . . . ”

दोष भी एक सामान्य प्रतिक्रिया है। मन में अनेक प्रश्‍न और संदेह आते हैं। ‘क्या हम कुछ और कर सकते थे? क्या हमें एक और डॉक्टर की राय लेनी चाहिए थी?’ और फिर होते हैं काश . . .। ‘काश हम इतना नहीं झगड़ते।’ ‘काश मैंने ज़्यादा स्नेह दिखाया होता।’ ‘काश उसके बदले मैं दुकान चला गया होता।’

मिचॆल कहता है: “काश मैंने अपने पिता के साथ ज़्यादा धीरता और सहानुभूति दिखायी होती। या घर पर ज़्यादा काम किए होते ताकि जब वह घर आते तब उनके लिए थोड़ा आसान हो जाता।” और एलीज़ा ने कहा: “जब मम्मी इतनी अचानक बीमार पड़ीं और मर गयीं, तब हमारे बीच एक दूसरे के लिए इतनी सारी अनसुलझी भावनाएँ थीं। अब मैं इतनी दोषी महसूस करती हूँ। मैं उन सारी बातों के बारे में सोचती हूँ जो मुझे उनसे कहनी चाहिए थीं, जो मुझे नहीं कहनी चाहिए थीं, जो मैंने ग़लत कीं।”

जो हुआ उसके लिए आप शायद अपने आपको भी दोष दें। सिन्डी याद करती है: “अब तक हुई हमारी हर बहस के लिए, मम्मी को मैंने जितनी तकलीफ़ दी थी उस सब के लिए, मैंने दोषी महसूस किया। मुझे लगा कि जितनी तकलीफ़ मैंने उनको दी थी शायद उसी के कारण वह बीमार पड़ी हों।”

“मैं अपने मित्रों से क्या कहूँ?”

एक विधवा ने अपने पुत्र के बारे में कहा: “जॉनी को दूसरे बच्चों को यह बताने से नफ़रत थी कि उसके पिता मर गए हैं। उसको शर्म आती थी और वह गुस्सा भी हो जाता था, सिर्फ़ इसलिए कि उसको शर्म आती थी।”

पुस्तक परिवार में मृत्यु और शोक (अंग्रेज़ी) समझाती है: “‘मैं अपने मित्रों से क्या कहूँ?’ अनेक सहोदरों [जीवित भाइयों या बहनों] के लिए सबसे महत्त्व का प्रश्‍न होता है। प्रायः, सहोदर महसूस करते हैं कि उनके मित्र नहीं समझते वे किस दौर से गुज़र रहे हैं। दुःख की गंभीरता समझाने की कोशिश करने पर शायद भावशून्य और प्रश्‍नभरी दृष्टि मिले। . . . फलस्वरूप, शोकित सहोदर ठुकराया, अकेला, और कभी-कभी सनकी-सा भी महसूस कर सकता है।”

लेकिन, यह समझिए कि दूसरों को कभी-कभी यह पता नहीं होता कि एक शोकित मित्र को क्या कहें—और इसलिए वे कुछ नहीं कहते। आपका दुःख उन्हें यह भी याद दिला सकता है कि वे भी किसी प्रियजन को खो सकते हैं। यह चाहते हुए कि उन्हें इसकी याद न दिलायी जाए, वे आपसे कतरा सकते हैं।

अपने शोक का सामना करना

यह जानना कि आपका शोक सामान्य है उस पर क़ाबू पाने में एक बड़ी मदद है। लेकिन वास्तविकता से इनकार करते रहना शोक को लम्बा ही करता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि परिवार के लोग भोजन-मेज़ पर मृत व्यक्‍ति के लिए एक स्थान खाली रखते हैं, मानो वह व्यक्‍ति भोजन के लिए आने ही वाला है। लेकिन, एक परिवार ने स्थिति से अलग तरह से निपटने का चुनाव किया। माँ कहती है: “हम रसोई मेज़ पर फिर कभी उसी क्रम में नहीं बैठते थे। मेरे पति ने डेविड की कुर्सी ले ली, और इसने खालीपन को भरने में मदद दी।”

यह समझने से भी मदद मिलती है कि जबकि ऐसी बातें हो सकती हैं जो आपको कहनी या करनी चाहिए या नहीं चाहिए थीं, प्रायः वे आपके प्रियजन की मृत्यु का कारण नहीं होतीं। इसके अलावा, “हम सब बहुत बार चूक जाते हैं।”—याकूब ३:२.

अपनी भावनाएँ बताना

डॉ. अर्ल ग्रॉलमॆन सुझाव देता है: “अपनी परस्पर-विरोधी भावनाओं को पहचानना ही काफ़ी नहीं; आपको खुलकर उनसे निपटना चाहिए। . . . यह अपनी भावनाएँ बताने का समय है।” यह अपने आपको अलग करने का समय नहीं।—नीतिवचन १८:१.

डॉ. ग्रॉलमॆन कहता है कि शोक से इनकार करने में, “आप व्यथा को और लम्बा ही करते हैं और शोक प्रक्रिया में देर करते हैं।” वह सुझाव देता है: “एक अच्छा श्रोता ढूँढिए, एक ऐसा मित्र जो यह समझ सके कि आपकी अनेक भावनाएँ आपके अत्यधिक शोक से उठनेवाली सामान्य प्रतिक्रियाएँ हैं।” एक जनक, भाई, बहन, मित्र, या मसीही कलीसिया का एक प्राचीन अकसर सच्चा सहारा साबित हो सकता है।

और तब क्या यदि आपको रोना आता है? डॉ. ग्रॉलमॆन आगे कहता है: “कुछ के लिए, आँसू भावात्मक तनाव का सबसे सही इलाज हैं, पुरुषों के लिए साथ ही स्त्रियों और बच्चों के लिए भी। रोना वेदना कम करने और पीड़ा दूर करने का स्वाभाविक तरीक़ा है।”

परिवार के रूप में संभलना

दुःख के समय में आपके माता-पिता भी एक बड़ी मदद हो सकते हैं—और आप उनके लिए एक मदद हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड की जेन और साराह ने अपना २३-वर्षीय भाई डॉरल खो दिया। वे अपने शोक से कैसे उबरे? जेन उत्तर देती है: “क्योंकि हम चार थे, मैं पापा के साथ जाकर सब कुछ करती थी, और साराह सब कुछ मम्मी के साथ करती थी। इस तरह हम अकेले नहीं होते थे।” जेन आगे याद करती है: “मैंने पापा को पहले कभी रोते नहीं देखा था। वह कई बार रोए, और एक तरीक़े से यह अच्छा था, और मुड़कर देखने पर, मुझे अब अच्छा लगता है कि मैं कम-से-कम उन्हें सांत्वना देने के लिए वहाँ रह सकी।”

आशा जो हिम्मत देती है

इंग्लैंड के युवा डेविड ने हॉज्किन रोग से अपनी १३-वर्षीय बहन जैनॆट को खो दिया। वह कहता है: “एक बात जिसने मुझे बहुत मदद दी वह अंत्येष्टि भाषण में पढ़ा गया एक शास्त्रवचन था। वहाँ लिखा है: ‘क्योंकि परमेश्‍वर ने एक दिन ठहराया है, जिस में वह धर्म से जगत का न्याय करेगा, और उसे, अर्थात्‌ यीशु को मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है।’ वक्‍ता ने पुनरुत्थान के बारे में अभिव्यक्‍ति ‘प्रमाणित’ पर ज़ोर दिया। अंत्येष्टि के बाद वह मेरे लिए शक्‍ति का एक बड़ा स्रोत था।”—प्रेरितों १७:३१. मरकुस ५:३५-४२; १२:२६, २७; यूहन्‍ना ५:२८, २९; १ कुरिन्थियों १५:३-८ भी देखिए।

पुनरुत्थान के बारे में बाइबल की आशा शोक दूर नहीं कर देती। आप अपने प्रियजन को कभी नहीं भूलेंगे। लेकिन, अनेक लोगों ने बाइबल की प्रतिज्ञाओं में सच्ची सांत्वना पायी है और इसके फलस्वरूप, अपने किसी प्रियजन को खोने की पीड़ा से धीरे-धीरे उबरना शुरू किया है।

चर्चा के लिए प्रश्‍न

◻ क्या आपको लगता है कि आपके किसी मृत प्रियजन के लिए शोक मनाना स्वाभाविक है?

◻ एक शोकित व्यक्‍ति कैसी भावनाओं का अनुभव कर सकता है, और क्यों?

◻ कौन-से कुछ तरीक़ों से एक शोकित युवा अपनी भावनाओं पर क़ाबू पाना शुरू कर सकता है?

◻ आप एक मित्र को सांत्वना कैसे दे सकते हैं जिसने एक प्रियजन खो दिया है?

[पेज 128 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“मैंने स्वीकार ही नहीं किया है कि वह जा चुकी हैं। . . . मैं अपने आपसे यह कहते हुए पाती हूँ, ‘यह बात तो मुझे मम्मी को बतानी पड़ेगी’”

[पेज 131 पर बड़े अक्षरों में लेख की खास बात]

“जब मम्मी मरीं, . . . मैं सोचती थी, ‘आपने हमें बताया भी नहीं कि आप मरने जा रही हैं। आप बस चली गयीं।’ मुझे लगा मैं त्याग दी गयी हूँ”

[पेज 129 पर तसवीर]

“नहीं, यह मेरे साथ नहीं हो सकता!”

[पेज 130 पर तसवीर]

जब हम अपने किसी प्रियजन को मृत्यु में खो देते हैं, तब हमें किसी करुणामय व्यक्‍ति के सहारे की ज़रूरत होती है