मसीही, यहोवा की महिमा ज़ाहिर करते हैं
मसीही, यहोवा की महिमा ज़ाहिर करते हैं
“धन्य है तुम्हारी आंखें, कि वे देखती हैं; और तुम्हारे कान, कि वे सुनते हैं।”—मत्ती 13:16.
1. सीनै पर्वत पर, मूसा को देखने के बाद इस्राएलियों ने जो किया, उसके बारे में क्या सवाल पैदा होता है?
सीनै पर्वत के सामने इकट्ठा हुए इस्राएलियों के पास यहोवा के करीब आने की कितनी ही वजह थीं। वही तो था, जिसने अपने बलवंत हाथ से उन्हें मिस्र की गुलामी से आज़ाद करवाया था। उसने वीराने में उनकी ज़रूरतें पूरी कीं, उन्हें खाना दिया, पानी दिया। यही नहीं, जब अमालेकियों ने उन पर हमला किया तो यहोवा ने उन्हें उन पर जीत भी दिलायी थी। (निर्गमन 14:26-31; 16:2–17:13) अब, जब इस्राएली सीनै पर्वत के सामने वीराने में डेरा डाले हुए थे, तो बादलों के गरजने और बिजलियाँ कड़कने से वे इतना डर गए कि थर-थर काँपने लगे। इसके बाद, उन्होंने मूसा को सीनै पर्वत से उतरते देखा। उसके चेहरे पर यहोवा की महिमा दिखायी दे रही थी। मगर, उसे देखकर दिल में श्रद्धा और विस्मय की भावना महसूस करने के बजाय वे उससे दूर भागने लगे। “तब वे [मूसा के] पास जाने से डर गए।” (निर्गमन 19:10-19; 34:30) यहोवा जिसने उनके लिए इतना कुछ किया था, उसकी महिमा का तेज देखकर वे क्यों इतना घबरा गए?
2. मूसा के चेहरे पर दिखायी देनेवाली परमेश्वर की महिमा से इस्राएली शायद क्यों डर रहे थे?
2 इस मौके पर, इस्राएली उस घटना को याद करके डर रहे थे जो कुछ वक्त पहले घटी थी। जब उन्होंने सोने का बछड़ा बनाकर, जानबूझकर यहोवा की आज्ञा तोड़ी, तो उसने उन्हें इसकी सज़ा दी। (निर्गमन 32:4, 35) क्या यहोवा की ताड़ना से उन्होंने सबक सीखा और इसके लिए एहसानमंद रहे? नहीं, ज़्यादातर लोगों ने सबक नहीं सीखा न ही एहसानमंदी दिखायी। मूसा ने अपनी ज़िंदगी के आखिरी दौर में, इस्राएलियों को सोने के बछड़े की घटना और दूसरे ऐसे वाकये याद दिलाए जब उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा तोड़ी थी। उसने उनसे कहा: “तुम ने अपने परमेश्वर यहोवा की आज्ञा के विरुद्ध बलवा किया, और न तो उसका विश्वास किया, और न उसकी बात ही मानी। जिस दिन से मैं तुम्हें जानता हूं उस दिन से तुम यहोवा से बलवा ही करते आए हो।”—व्यवस्थाविवरण 9:15-24.
3. मूसा ने अपना चेहरा छिपाने के लिए क्या किया?
3 गौर कीजिए कि इस्राएलियों के इस डर की वजह से मूसा को क्या करना पड़ा। वृत्तांत कहता है: “जब तक मूसा उन से बात न कर चुका तब तक अपने मुंह पर ओढ़ना डाले रहा। और जब जब मूसा भीतर [निवासस्थान में] यहोवा से बात करने को उसके साम्हने जाता तब तब वह उस ओढ़नी को निकलते समय तक उतारे हुए रहता था; फिर बाहर आकर जो जो आज्ञा उसे मिलतीं उन्हें इस्राएलियों से कह देता था। सो इस्राएली मूसा का चेहरा देखते थे कि उस से किरणें निकलती हैं; और जब तक वह यहोवा से बात करने को भीतर न जाता तब तक वह उस ओढ़नी को डाले रहता था।” (निर्गमन 34:33-35) मूसा को कभी-कभी अपना चेहरा क्यों ढकना पड़ता था? और इस बात से हम क्या सीख सकते हैं? इन सवालों के जवाब हमें यहोवा के साथ अपने रिश्ते को जाँचने में मदद दे सकते हैं।
हाथ आया मौका गँवा दिया
4. प्रेरित पौलुस ने मूसा के ओढ़नी से चेहरा छिपाने का क्या मतलब बताया?
4 प्रेरित पौलुस ने समझाया कि मूसा का ओढ़नी से चेहरा ढकना दिखाता है कि खुद इस्राएलियों के दिल और दिमाग का क्या हाल था। पौलुस लिखता है: “मूसा के मुंह पर के तेज के कारण . . . इस्राएल उसके मुंह पर दृष्टि नहीं कर सकते थे। परन्तु वे मतिमन्द हो गए।” (2 कुरिन्थियों 3:7, 14) यह कितने अफसोस की बात थी! इस्राएली, यहोवा के चुने हुए लोग थे और वह उन्हें अपने करीब लाना चाहता था। (निर्गमन 19:4-6) मगर वे परमेश्वर की महिमा के तेज को एकटक देखने से पीछे हट रहे थे। यहोवा से प्यार करने और उसकी भक्ति में अपना दिलो-दिमाग लगाने के बजाय उन्होंने यह दिखाया कि वे उससे दूर जा चुके हैं।
5, 6. (क) पहली सदी में कौन लोग, मूसा के दिनों के इस्राएलियों जैसे थे? (ख) यीशु की बात सुननेवालों और उसकी न सुननेवालों के बीच क्या भारी फर्क था?
5 सामान्य युग पहली सदी में भी ऐसे ही लोग थे। जब पौलुस मसीही बना, तब तक मूसा की कानून-व्यवस्था खत्म हो चुकी थी और नयी वाचा ने उसकी जगह ले ली थी। इस नयी वाचा का मध्यस्थ था, महान मूसा यानी यीशु मसीह। अपनी शिक्षाओं और अपने कामों से, यीशु ने बहुत ही उम्दा तरीके से यहोवा की महिमा ज़ाहिर की। पौलुस ने पुनरुत्थान पाए यीशु के बारे में लिखा: “वह [परमेश्वर] की महिमा का प्रकाश, और उसके तत्व की छाप है।” (इब्रानियों 1:3) यहूदियों को क्या ही शानदार मौका मिला था! वे खुद परमेश्वर के पुत्र के मुँह से हमेशा की ज़िंदगी की बातें सुन सकते थे! दुःख की बात है कि यीशु ने जिन लोगों को प्रचार किया उनमें से ज़्यादातर लोगों ने उसकी नहीं सुनी। उनके बारे में यहोवा ने यशायाह के ज़रिए जो भविष्यवाणी की थी, उसका हवाला यीशु ने इन शब्दों में दिया: “इन लोगों का मन मोटा हो गया है, और वे कानों से ऊंचा सुनते हैं और उन्हों ने अपनी आंखें मूंद ली हैं; कहीं ऐसा न हो कि वे आंखों से देखें, और कानों से सुनें और मन से समझें, और फिर जाएं, और मैं उन्हें चंगा करूं।”—मत्ती 13:15; यशायाह 6:9, 10.
6 इन यहूदियों और यीशु के चेलों के बीच एक बहुत भारी फर्क था। यीशु ने अपने चेलों के बारे में कहा: “धन्य है तुम्हारी आंखें, कि वे देखती हैं; और तुम्हारे कान, कि वे सुनते हैं।” (मत्ती 13:16) सच्चे मसीही यहोवा को जानने और उसकी सेवा करने को तरसते हैं। उन्हें परमेश्वर की मरज़ी पूरी करने से खुशी मिलती है और बाइबल से वे उसकी मरज़ी सीखते हैं। इसलिए, अभिषिक्त मसीही नयी वाचा से जुड़ी अपनी सेवा से यहोवा की महिमा ज़ाहिर करते हैं और अन्य भेड़ें भी ऐसा ही करती हैं।—2 कुरिन्थियों 3:6, 18.
सुसमाचार पर परदा क्यों पड़ा हुआ है
7. यह ताज्जुब की बात क्यों नहीं कि ज़्यादातर लोग सुसमाचार को ठुकरा देते हैं?
7 हमने देखा कि यीशु और मूसा के दिनों में ज़्यादातर इस्राएलियों ने कैसे एक खास मौका गँवा दिया। हमारे ज़माने में भी हालात ऐसे ही हैं। हम जिस सुसमाचार का प्रचार करते हैं, ज़्यादातर लोग उसे ठुकरा देते हैं। इससे हमें ताज्जुब नहीं होता। पौलुस ने लिखा था: “यदि हमारे सुसमाचार पर परदा पड़ा है, तो यह नाश होनेवालों ही के लिये पड़ा है। और उन अविश्वासियों के लिये, जिन की बुद्धि को इस संसार के ईश्वर ने अन्धी कर दी है।” (2 कुरिन्थियों 4:3, 4) शैतान तो सुसमाचार पर परदा डालने की कोशिश तो करता ही है, मगर लोग भी अपने चेहरों को छिपाते हैं क्योंकि वे आँखें होते हुए भी अंधे बने रहना चाहते हैं।
8. अज्ञानता कैसे बहुत-से लोगों को अंधा कर देती है, और हम इससे कैसे बच सकते हैं?
8 बहुत-से लोगों के मन की आँखें अंधी हो गयी हैं क्योंकि वे परमेश्वर के बारे में नहीं जानते। देश-देश के लोगों के बारे में बाइबल कहती है कि “उनकी बुद्धि अन्धेरी हो गई है और उस अज्ञानता के कारण जो उन में है . . . वे परमेश्वर के जीवन से अलग किए हुए हैं।” (इफिसियों 4:18) पौलुस को मूसा की व्यवस्था की बहुत अच्छी जानकारी थी, फिर भी मसीही बनने से पहले, अज्ञानता ने उसे इस कदर अंधा कर दिया था कि उसने परमेश्वर की कलीसिया पर बड़े ज़ुल्म ढाए। (1 कुरिन्थियों 15:9) इसके बावजूद, यहोवा ने उसे सच्चाई का ज्ञान दिया। क्यों? पौलुस समझाता है: “मुझपर इसलिये दया हुई, कि मुझ सब से बड़े पापी में यीशु मसीह अपनी पूरी सहनशीलता दिखाए, कि जो लोग उस पर अनन्त जीवन के लिये विश्वास करेंगे, उन के लिये मैं एक आदर्श बनूं।” (1 तीमुथियुस 1:16) पौलुस की तरह जो पहले सच्चाई का विरोध करते थे, उनमें से कई आज परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। यह एक अच्छी वजह है कि क्यों हमें उन लोगों को भी गवाही देते रहना चाहिए जो हमारा विरोध करते हैं। इसके साथ-साथ, हम खुद पर भी ध्यान देंगे कि लगातार परमेश्वर के वचन का अध्ययन करें और उसे समझें, ताकि अज्ञानता की वजह से ऐसा कोई गलत काम न कर बैठें जिससे यहोवा हमसे नाराज़ हो जाए।
9, 10. (क) पहली सदी के यहूदियों ने कैसे दिखाया कि उनमें सीखने की इच्छा ही नहीं है और वे अपने विचारों पर अड़े रहेंगे? (ख) क्या ईसाईजगत में आज ऐसे ही लोग हैं? समझाइए।
9 बहुत-से लोग सच्चाई की रोशनी नहीं देख पाते, क्योंकि उनमें सीखने की इच्छा ही नहीं होती और वे अपने विचारों पर अड़े रहते हैं। ज़्यादातर यहूदियों ने यीशु और उसकी शिक्षाओं को ठुकरा दिया था क्योंकि उनकी ज़िद्द थी कि वे मूसा की कानून-व्यवस्था को मानना नहीं छोड़ेंगे। बेशक, कुछ यहूदी उनसे अलग थे। मिसाल के लिए, यीशु के पुनरुत्थान के बाद “याजकों का एक बड़ा समाज इस मत के आधीन हो गया।” (प्रेरितों 6:7) मगर ज़्यादातर यहूदियों के बारे में पौलुस ने लिखा: “आज तक जब कभी मूसा की पुस्तक पढ़ी जाती है, तो उन के हृदय पर परदा पड़ा रहता है।” (2 कुरिन्थियों 3:15) पौलुस शायद जानता था कि यीशु ने पहले यहूदी धर्म-गुरुओं से क्या कहा था: “तुम पवित्रशास्त्र में ढूंढ़ते हो, क्योंकि समझते हो कि उस में अनन्त जीवन तुम्हें मिलता है, और यह वही है, जो मेरी गवाही देता है।” (यूहन्ना 5:39) जिस पवित्रशास्त्र में वे इतने ध्यान से खोजबीन करते थे, उसी की मदद से उन्हें यह समझना चाहिए था कि यीशु ही मसीहा था। मगर, उन यहूदियों की अपनी ही समझ थी, इसलिए परमेश्वर के पुत्र ने जो ढेरों चमत्कार किए वे भी उन्हें उसके मसीहा होने का यकीन न दिला सके।
10 आज ईसाईजगत में भी बहुत-से लोग ऐसे ही हैं। पहली सदी के यहूदियों की तरह, “उनमें परमेश्वर के लिए धुन तो है, परन्तु ज्ञान के अनुसार नहीं।” (रोमियों 10:2, NHT) हालाँकि कुछ लोग बाइबल का अध्ययन करते हैं, मगर वे इसके संदेश पर विश्वास नहीं करना चाहते। वे यह नहीं मानना चाहते कि यहोवा, अभिषिक्त जनों से बने विश्वासयोग्य और बुद्धिमान दास वर्ग के ज़रिए अपने लोगों को सिखाता है। (मत्ती 24:45) लेकिन, हम यह मानते हैं कि यहोवा आज अपने लोगों को सिखा रहा है और वह हमेशा धीरे-धीरे सच्चाई की रोशनी उन पर चमकाता है और उनकी समझ को बढ़ाता जाता है। (नीतिवचन 4:18) जब हम खुद को यहोवा के अधीन करते हैं और वह हमें सिखाता है, तो हमें उसकी मरज़ी और उसके मकसद के बारे में जानने की आशीष मिलती है।
11. खुद को ठीक लगनेवाली बातों को माननेवाले अंधकार में क्यों हैं?
11 कुछ लोग इसलिए अंधकार में हैं, क्योंकि वे वही मानना चाहते हैं जो उन्हें ठीक लगता है। बाइबल में पहले से बताया गया था कि अंत के दिनों में कुछ लोग परमेश्वर के लोगों और यीशु की उपस्थिति के बारे में उनके संदेश को ठट्ठों में उड़ाएँगे। प्रेरित पतरस ने लिखा: “वे तो जान बूझकर यह [सच्चाई] भूल गए” कि परमेश्वर ने नूह के ज़माने में एक जलप्रलय लाया था। (2 पतरस 3:3-6) इसी तरह, आज भी मसीही होने का दावा करनेवाले बहुत-से लोग फौरन कबूल करते हैं कि यहोवा दया का सागर, कृपालु परमेश्वर है और क्षमा करने को तैयार रहता है; मगर वे इस सच्चाई को अनदेखा करते या ठुकराते हैं कि दुष्टों का दंड यहोवा माफ नहीं करता। (निर्गमन 34:6, 7) लेकिन सच्चे मसीही पूरी कोशिश करते हैं कि बाइबल सचमुच जो सिखाती है उसे अच्छी तरह समझें।
12. लोगों को परंपराओं ने कैसे अंधा कर दिया है?
12 चर्च जानेवाले बहुत-से लोगों को परंपराओं ने अंधा कर रखा है। अपने ज़माने के धर्म-गुरुओं से यीशु ने कहा: “तुमने अपनी परम्परा के लिए परमेश्वर के वचन को व्यर्थ कर दिया।” (मत्ती 15:6, NHT) यहूदियों ने बाबुल की बंधुआई से लौटकर पूरे जोश के साथ शुद्ध उपासना बहाल की थी, फिर भी उस वक्त के याजक घमंडी हो गए थे और खुद को दूसरों से ज़्यादा धर्मी समझने लगे थे। वे सिर्फ दिखावे के लिए धार्मिक त्योहार मनाते थे जिनमें परमेश्वर के लिए श्रद्धा की भावना बिलकुल नहीं होती थी। (मलाकी 1:6-8) यीशु के ज़माने तक, शास्त्रियों और फरीसियों ने मूसा की कानून-व्यवस्था में बेहिसाब परंपराएँ और रीति-रस्में जोड़ दी थीं। यीशु ने इन धर्म-गुरुओं के कपट की पोल खोल दी, क्योंकि वे उन धर्मी सिद्धांतों को भूल चुके थे जिनकी बुनियाद पर कानून-व्यवस्था खड़ी थी। (मत्ती 23:23, 24) सच्चे मसीहियों को इस बात से सावधान रहना चाहिए कि कहीं इंसान की बनायी परंपराएँ और रीति-रस्में उन्हें शुद्ध उपासना से भटका न दें।
“अनदेखे को मानो देखता हुआ”
13. मूसा ने किन दो तरीकों से परमेश्वर की महिमा का कुछ अंश देखा?
13 मूसा ने पर्वत पर परमेश्वर की महिमा देखने की गुज़ारिश की और उसने यहोवा की महिमा के बाद की दमक देखी भी। जब वह निवासस्थान के अंदर जाता था, तो उसे अपना चेहरा ढकने की ज़रूरत नहीं होती थी। मूसा में अटल विश्वास था और उसकी यही तमन्ना थी कि परमेश्वर की मरज़ी पूरी करे। हालाँकि दर्शन में उसे परमेश्वर की महिमा का कुछ अंश देखने की आशीष मिली, मगर एक मायने में वह विश्वास की आँखों से परमेश्वर को पहले ही देख चुका था। बाइबल कहती है कि मूसा “अनदेखे को मानो देखता हुआ दृढ़ रहा।” (इब्रानियों 11:27; निर्गमन 34:5-7) और मूसा ने यहोवा की यह महिमा दो तरीकों से ज़ाहिर भी की। कैसे? एक तो कुछ वक्त तक मूसा के चेहरे से निकलनेवाली किरणों से यह महिमा ज़ाहिर होती थी। दूसरे, मूसा ने इस्राएलियों को यहोवा के बारे में सिखाने और उसकी सेवा करने में मदद देने के लिए बहुत मेहनत की।
14. यीशु ने परमेश्वर की महिमा को कैसे देखा, और उसे किस बात से खुशी मिलती थी?
14 इस विश्व के बनने से बहुत पहले, स्वर्ग में यीशु युगों तक सीधे-सीधे परमेश्वर की महिमा को देखता था। (नीतिवचन 8:22, 30) उन तमाम युगों के दौरान, यहोवा और यीशु के बीच गहरा प्यार और लगाव पैदा हुआ। यहोवा परमेश्वर ने दिखाया कि सारी सृष्टि में अपने इस पहिलौठे बेटे के लिए उसमें कितना कोमल प्रेम और स्नेह है। यीशु ने भी प्यार के बदले प्यार किया और उसे अपने जीवन-दाता परमेश्वर से गहरा लगाव था। (यूहन्ना 14:31; 17:24) उनका प्यार, पिता और पुत्र के बीच के स्नेह की सबसे उम्दा मिसाल है। मूसा की तरह, यीशु भी दूसरों को सिखाने के ज़रिए यहोवा की महिमा ज़ाहिर करता था और ऐसा करने में उसे बहुत खुशी मिलती थी।
15. मसीही कैसे परमेश्वर की महिमा को निहारते हैं?
15 मूसा और यीशु की तरह, आज यहोवा के साक्षी भी परमेश्वर की महिमा को निहारने के लिए उत्सुक हैं। उन्होंने महिमा से भरे सुसमाचार से मुँह नहीं फेरा है। प्रेरित पौलुस ने लिखा: “जब कभी उन का हृदय प्रभु की ओर [उसकी मरज़ी पूरी करने के लिए] फिरेगा, तब वह परदा उठ जाएगा।” (2 कुरिन्थियों 3:16) हम शास्त्र का अध्ययन करते हैं क्योंकि हम परमेश्वर की मरज़ी पूरी करना चाहते हैं। हम यहोवा के पुत्र और अभिषिक्त राजा यीशु मसीह के चेहरे से ज़ाहिर होनेवाली परमेश्वर की महिमा की कदर करते हैं और हम उसके नक्शे-कदम पर चलते हैं। मूसा और यीशु की तरह, हमें दूसरों को अपने महिमावान परमेश्वर के बारे में सिखाने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है।
16. सच्चाई को जानने से हमें कैसे आशीष मिलती है?
16 यीशु ने प्रार्थना की: “हे पिता, . . . मैं तेरा धन्यवाद करता हूं, कि तू ने इन बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा रखा, और बालकों पर प्रगट किया है।” (मत्ती 11:25) यहोवा उन लोगों को अपने मकसद और अपनी शख्सियत की समझ देता है जो सच्चे दिल के और नम्र हैं। (1 कुरिन्थियों 1:26-28) हमने उसकी हिफाज़त पायी है और वह हमें सिखाता है कि कैसे खुद को लाभ पहुँचाएं, यानी अपनी ज़िंदगी सबसे बेहतरीन तरीके से कैसे जीएँ। यहोवा ने हमें अपने बारे में सिखाने के लिए ढेरों इंतज़ाम किए हैं। आइए हम इनके लिए एहसानमंद हों और इनके ज़रिए यहोवा के करीब आने का एक भी मौका हाथ से न जाने दें।
17. हम यहोवा के गुणों को ज़्यादा अच्छी तरह कैसे ज़ाहिर कर सकेंगे?
17 पौलुस ने अभिषिक्त मसीहियों को लिखा: “मगर जब हम सब के खुले चेहरों से परमेश्वर की महिमा इस तरह ज़ाहिर होती है जिस तरह आइने में [और] हम उसी महिमा की सूरत में दर्जा ब दर्जा बदलते जाते हैं।” (2 कुरिन्थियों 3:18, हिन्दुस्तानी बाइबल) हमें चाहे स्वर्ग में चाहे धरती पर हमेशा की ज़िंदगी पाने की उम्मीद हो, हम यहोवा को जितना अच्छी तरह जानेंगे उतना ज़्यादा हम उसके जैसे बनते जाएँगे। उसके गुणों को जानने में बाइबल हमारी मदद करती है। अगर हम बाइबल में यीशु मसीह की ज़िंदगी, उसकी सेवा और शिक्षाओं पर ध्यान दें, तो हम ज़्यादा अच्छी तरह यहोवा के गुणों को ज़ाहिर कर सकेंगे। यह जानकर हमें कितनी खुशी मिलती है कि ऐसा करने से हम अपने परमेश्वर का गुणगान करते हैं, जिसकी महिमा हम ज़ाहिर करना चाहते हैं!
क्या आपको याद है?
• मूसा के चेहरे पर परमेश्वर की महिमा का तेज देखकर इस्राएली क्यों घबरा गए?
• पहली सदी में और आज किन तरीकों से सुसमाचार पर “परदा पड़ा” हुआ है?
• हम परमेश्वर की महिमा कैसे ज़ाहिर करते हैं?
[अध्ययन के लिए सवाल]
[पेज 19 पर तसवीर]
इस्राएली एकटक मूसा का चेहरा नहीं निहार सकते थे
[पेज 21 पर तसवीरें]
पौलुस की तरह जो पहले सच्चाई का विरोध करते थे, उनमें से कई आज परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं
[पेज 23 पर तसवीरें]
यहोवा के सेवक, उसकी महिमा ज़ाहिर करके खुशी पाते हैं