इतनी दुख-तकलीफें क्यों हैं?
इतनी दुख-तकलीफें क्यों हैं?
चर्च के पादरी दावा करते हैं कि उन्हें बायीं तरफ दिए सवाल का जवाब पता है। वे सिखाते हैं कि परमेश्वर इंसानों को सज़ा देने के लिए उन पर दुख-तकलीफें लाता है। उदाहरण के लिए, हैती में आए भूकंप के कई दिनों बाद वहाँ की राजधानी में एक पादरी ने अपनी मंडली को बताया कि यह विपत्ति परमेश्वर की तरफ से एक चेतावनी थी। दूसरे लोग भी यही मानते हैं, लेकिन इतना खुलकर नहीं कहते। अमरीका में, धर्म की एक सहायक प्रोफेसर ने बताया कि इस विपत्ति के बारे में बहुत-से लोग क्या कहते हैं: “परमेश्वर ऐसी विपत्तियाँ क्यों लाता है, यह एक रहस्य है जिसे सुलझाना हमारा काम नहीं। हमारा काम सिर्फ विश्वास करना है।”
क्या परमेश्वर सचमुच इंसानों पर दुख-तकलीफें “लाता” है? बाइबल ऐसा बिलकुल नहीं सिखाती। यहोवा परमेश्वर का यह मकसद कभी नहीं था कि इंसान दुख-तकलीफें झेले। दुख-तकलीफें इसलिए आयीं क्योंकि पहले इंसानी जोड़े ने परमेश्वर की हुकूमत के खिलाफ बगावत की और फैसला किया कि वे अपना अच्छा-बुरा खुद तय करेंगे। उन्होंने परमेश्वर से मुँह मोड़ लिया और उन्हें इसके बुरे अंजाम भुगतने पड़े। आज हम उन्हीं के गलत चुनाव का खामियाज़ा उठा रहे हैं। लेकिन इंसानों की दुख-तकलीफों के लिए परमेश्वर बिलकुल ज़िम्मेदार नहीं है। बाइबल बताती है: “जब किसी की परीक्षा हो रही हो तो वह यह न कहे: ‘परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है।’ क्योंकि न तो बुरी बातों से परमेश्वर को परीक्षा में डाला जा सकता है, न ही वह खुद बुरी बातों से किसी की परीक्षा लेता है।” (याकूब 1:13) दुख-तकलीफें किसी पर भी आ सकती हैं, परमेश्वर के नेक बंदों पर भी। ज़रा इन मिसालों पर ध्यान दीजिए:
● एलीशा नाम के एक भविष्यवक्ता को ऐसी बीमारी थी जिससे वह मरने पर था।—2 राजा 13:14.
● प्रेषित पौलुस लिखता है कि वह ‘भूखा-प्यासा और फटेहाल रहा, मार खाता फिरता रहा और बेघर रहा।’—1 कुरिंथियों 4:11.
● इपफ्रुदीतुस नाम का एक मसीही बीमार था और “बहुत हताश हो गया” था।—फिलिप्पियों 2:25, 26.
हम बाइबल में ऐसा कहीं नहीं पढ़ते कि परमेश्वर इन तीनों को उनके पापों की सज़ा दे रहा था। बाइबल सिर्फ इतना नहीं बताती कि दुख-तकलीफों के लिए परमेश्वर ज़िम्मेदार नहीं है, वह यह भी बताती है कि इसके पीछे कौन-सी तीन खास वजह हैं। (g11-E 07)
एक इंसान का अपना चुनाव
“इंसान जो बोएगा, वही काटेगा भी।” (गलातियों 6:7) अगर एक इंसान सिगरेट पीने, लापरवाही से गाड़ी चलाने या अपनी कमाई उड़ा देने का चुनाव करता है, तो इस फैसले से होनेवाली तकलीफों के लिए काफी हद तक वह खुद ज़िम्मेदार होगा।
कभी-कभी किसी और के चुनाव से भी हम पर तकलीफें आ सकती हैं क्योंकि उन चुनावों के पीछे उनका स्वार्थ छिपा होता है। देखा जाए तो इसी वजह से इंसानों ने ऐसे घिनौने काम किए हैं जिनके बारे में सुनकर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। नात्ज़ियों के किए ज़ुल्म या बच्चों के साथ होनेवाले दुर्व्यवहार इसके जीते-जागते सबूत हैं। इंसानों को अपने फैसले करने की जो आज़ाद मरज़ी मिली है, उसका कुछ लोगों ने गलत फायदा उठाकर ऐसे फैसले किए हैं जिनसे दूसरों को तकलीफ पहुँची है।
अचानक होनेवाली घटनाएँ
ईसवी सन् पहली सदी में यरूशलेम में एक बड़े बुर्ज के गिर जाने से 18 लोग दबकर मर गए। इस हादसे के शिकार लोगों के बारे में यीशु ने कहा: ‘क्या तुम्हें लगता है कि वे लोग, यरूशलेम में रहनेवाले दूसरे सभी लोगों से बढ़कर पापी थे? नहीं।’ (लूका 13:4, 5) यीशु जानता था कि मारे गए लोगों को परमेश्वर ने सज़ा नहीं दी है। उसे पता था कि परमेश्वर के वचन में लिखा है कि “सब समय और संयोग” के शिकार होते हैं। (सभोपदेशक 9:11) इसका मतलब बुरे हादसे कभी-भी, किसी के भी साथ हो सकते हैं। और अकसर ऐसा होता भी है। लोग इत्तफाक से ऐसी जगह होते हैं जहाँ अचानक कोई दुर्घटना घट जाती है और वे उसकी चपेट में आ जाते हैं। या कई बार इंसानों की गलती की वजह से भी हादसे होते हैं। रिपोर्ट दिखाती हैं कि जब लोग चेतावनियों पर ध्यान नहीं देते या इस तरह की इमारतें बनायी जाती हैं जो मौसम की मार या भूकंप के झटके नहीं झेल पातीं, तो अचानक कोई विपत्ति आने पर ज़्यादा-से-ज़्यादा लोग उसका शिकार बन जाते हैं जिससे दुख-तकलीफें और बढ़ जाती हैं।
“इस दुनिया का राजा”
बाइबल कहती है: “सारी दुनिया शैतान के कब्ज़े में पड़ी हुई है।” (यूहन्ना 12:31; 1 यूहन्ना 5:19) शैतान एक शक्तिशाली आत्मिक प्राणी है जिसके बारे में कहा गया है कि वह “दुनिया की फितरत के अधिकार पर राज करता है।” शैतान इस फितरत को बढ़ावा देता है जो “चारों तरफ हवा की तरह फैली हुई है और अब आज्ञा न माननेवालों में काम करती हुई दिखायी देती है।” (इफिसियों 2:2) पूरी-की-पूरी जाति का सफाया करना और बच्चों के साथ होनेवाला दुर्व्यवहार, दिल दहला देनेवाले कुछ ऐसे अपराध हैं कि कइयों को यह मानना मुश्किल लगता है कि इसके पीछे सिर्फ इंसान का हाथ हो सकता है।
लेकिन क्या इसका मतलब है कि परमेश्वर हमारी तकलीफों को देखकर भी अनदेखा कर रहा है? क्या वह दुख-तकलीफों को खत्म कर सकता है? क्या वह ऐसा करेगा?