उन्होंने खुशी-खुशी खुद को पेश किया
हमारे कई जोशीले भाई-बहन उन देशों में जाकर सेवा कर रहे हैं जहाँ राज प्रचारकों की ज़्यादा ज़रूरत है। इनमें हमारी बहुत-सी अविवाहित बहनें भी हैं। कुछ बहनें तो कई सालों से ऐसा कर रही हैं। किस बात ने उनकी मदद की कि वे दूसरे देश जाकर सेवा करें? उन्होंने वहाँ सेवा करके क्या सीखा? उन्हें ज़िंदगी में क्या मिला? हमने ऐसी कई तजुरबेकार बहनों से बातचीत की। अगर आप एक अविवाहित बहन हैं और अपनी सेवा से सच्ची खुशी पाना चाहते हैं, तो आपको इन बहनों की बातों से बहुत फायदा होगा। सिर्फ बहनों को ही नहीं, बल्कि परमेश्वर के सभी सेवकों को इससे फायदा होगा।
उन्होंने अपनी शंका दूर की
क्या आप यह सोचते हैं, पता नहीं एक अविवाहित पायनियर के नाते मैं दूसरे देश में सेवा कर पाऊँगी या नहीं? अनीटा जिसकी उम्र अब 75 साल है, उसके मन में भी एक वक्त पर यही शंका थी। वह इंग्लैंड में पली-बढ़ी थी जहाँ उसने 18 साल की उम्र में पायनियर सेवा शुरू की थी। वह कहती है, “मुझे लोगों को यहोवा के बारे में सिखाना पसंद है। लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं दूसरे देश में जाकर सेवा कर पाऊँगी। मैंने कोई विदेशी भाषा नहीं सीखी और मुझे यकीन था कि मैं कभी सीख भी नहीं पाऊँगी। इसलिए जब मुझे गिलियड स्कूल का न्यौता मिला तो मैं हैरान रह गयी, भला मेरी जैसी मामूली बहन को यह न्यौता कैसे मिल सकता है। लेकिन फिर मैंने सोचा, ‘अगर यहोवा को लगता है कि मैं कर सकती हूँ तो मैं ज़रूर कोशिश करूँगी।’ यह 50 साल पहले की बात है। तब से अब तक मैं जापान में मिशनरी सेवा कर रही हूँ।” अनीटा यह भी बताती है, “कभी-कभी मैं बड़े जोश के साथ जवान बहनों से कहती हूँ, ‘अपना बैग उठाओ और मेरी तरह इस रोमांचक सेवा में जुट जाओ!’ मुझे खुशी है कि कई बहनों ने ऐसा ही किया है।”
उन्होंने हिम्मत जुटायी
विदेश में सेवा करनेवाली कई बहनें शुरू-शुरू में ऐसा करने से झिझकती थीं। वे इस सेवा के लिए कैसे हिम्मत जुटा पायीं?
मॉरीन जो अभी 64 साल की है बताती है, “जैसे-जैसे मैं बड़ी हो रही थी, मैं चाहती थी कि मेरी ज़िंदगी में कोई मकसद हो, मैं अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना चाहती थी।” जब वह 20 साल की हुई, तो वह कनाडा के क्यूबेक प्रांत में जाकर सेवा करने लगी जहाँ पायनियरों की बहुत ज़रूरत थी। वह कहती है, “बाद में मुझे गिलियड स्कूल जाने का न्यौता मिला। मगर अपने दोस्तों को छोड़कर एक अनजान देश में मिशनरी सेवा करने के खयाल से मैं घबरा गयी।” वह यह भी कहती है, “मुझे एक और बात की चिंता थी। मेरे पिताजी बीमार थे और माँ उनकी देखभाल करती थी। ऐसे में, मैं अपनी माँ को अकेला छोड़कर कैसे जा सकती थी। मैंने कई रातें रो-रोकर यहोवा को अपनी चिंताएँ बतायीं। जब मैंने अपने मम्मी-पापा को अपनी चिंताओं के बारे में बताया तो उन्होंने मुझे न्यौता कबूल करने का बढ़ावा दिया। हमारी मंडली के भाई-बहनों ने भी प्यार से मेरे मम्मी-पापा की मदद की। यहोवा की यह परवाह देखकर मुझे यकीन हो गया
कि वह मेरी भी देखभाल करेगा। तब मैं जाने के लिए तैयार हो गयी!” सन् 1979 में मॉरीन ने दक्षिण अफ्रीका में मिशनरी सेवा शुरू की। वहाँ उसने 30 से भी ज़्यादा साल सेवा की। आज मॉरीन कनाडा में अपनी माँ की देखभाल कर रही है और खास पायनियर के नाते सेवा भी कर रही है। इतने सालों तक दूसरे देश में उसने जो सेवा की है, उसे याद करते हुए वह कहती है, “यहोवा ने हमेशा मेरी ज़रूरत पूरी की और वह भी ठीक उस वक्त जब मुझे सचमुच ज़रूरत थी।”पैंसठ साल की वेन्डी ने ऑस्ट्रेलिया में तब पायनियर सेवा शुरू की थी जब वह 14 साल की थी। वह याद करती है, “मैं बहुत शर्मीली थी और अजनबियों से बात करना मुझे मुश्किल लगता था। लेकिन पायनियर सेवा करने से मैंने हर तरह के लोगों से बात करना सीखा। इससे मेरा आत्म-विश्वास बढ़ा और मुझे एहसास हुआ कि अब अजनबियों से बात करना मेरे लिए मुश्किल नहीं है। पायनियर सेवा करने से मैंने यहोवा पर निर्भर रहना सीखा और धीरे-धीरे मुझे यकीन हो गया कि मैं दूसरे देश में भी सेवा कर सकती हूँ। इसी दौरान एक अविवाहित बहन ने मुझसे कहा कि मैं तीन महीने के लिए उसके साथ जापान में सेवा करूँ। उस बहन ने जापान में 30 से भी ज़्यादा साल तक मिशनरी सेवा की थी। उसके साथ काम करके मेरी यह इच्छा और बढ़ गयी कि मैं दूसरे देश में सेवा करूँ।” सन् 1986 में वेन्डी वनुआतु द्वीप चली गयी। यह द्वीप ऑस्ट्रेलिया से करीब 1,770 किलोमीटर दूर पूरब में है।
वेन्डी आज भी वनुआतु में है और वहाँ के रिमोट ट्रांस्लेशन ऑफिस में सेवा कर रही है। वह कहती है, “यह देखकर मुझे सबसे ज़्यादा खुशी होती है कि दूर-दूर के इलाकों में समूह और मंडलियाँ बन रही हैं। इन द्वीपों में यहोवा के काम को आगे बढ़ाने में मैंने एक छोटी-सी भूमिका निभायी है और मैं इसे बड़ा सम्मान मानती हूँ।”
कूमीको जापान में पायनियर सेवा कर रही थी, जब उसकी पायनियर साथी ने उससे पूछा कि क्या हम नेपाल जाकर सेवा करें। कूमीको जो अब 65 साल की है कहती है, “वह बार-बार मुझसे पूछती रही लेकिन मैं हर बार उसे मना कर देती थी। मुझे चिंता थी कि मैं कैसे एक नयी भाषा सीख पाऊँगी और एक नए माहौल में खुद को ढाल पाऊँगी। नयी जगह में रहने के लिए पैसे भी चाहिए, वह कहाँ से आएँगे। मैं इस कशमकश में थी कि तभी मोटरसाइकिल से मेरा ऐक्सीडेंट हो गया और मुझे अस्पताल में भर्ती किया गया। वहाँ मैंने सोचा, ‘क्या पता ज़िंदगी में आगे क्या होगा? हो सकता है मुझे कोई गंभीर बीमारी हो जाए और दूसरे देश जाकर सेवा करने का फिर मौका न मिले। क्या मैं कम-से-कम एक साल के लिए दूसरे देश में सेवा नहीं कर सकती?’ मैंने यहोवा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की कि वह मुझे फैसला लेने में मदद करे।” अस्पताल से वापस आने के बाद कूमीको नेपाल घूमने गयी। फिर बाद में वह अपनी पायनियर साथी के साथ नेपाल जाकर सेवा करने लगी।
कूमीको को नेपाल में सेवा करते हुए करीब दस साल हो चुके हैं। अपनी सेवा के बारे में वह कहती है, “जिन मुश्किलों के बारे में मैं चिंता करती थी वे लाल सागर की तरह मेरे सामने दो
भागों में बँट गयीं। मुझे खुशी है कि मैं वहाँ सेवा कर रही हूँ जहाँ ज़्यादा ज़रूरत है। अकसर जब हम किसी परिवार को बाइबल का संदेश सुना रहे होते हैं, तो उनके पाँच-छ: पड़ोसी भी हमारी बातें सुनने के लिए आ जाते हैं। यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी बड़े आदर के साथ मुझसे बाइबल के बारे में कोई ट्रैक्ट माँगते हैं। इस इलाके में हमें बहुत अच्छे नतीजे मिल रहे हैं और यहाँ प्रचार करने में मुझे बहुत खुशी होती है।”उन्होंने मुश्किलों का सामना कैसे किया
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि इन हिम्मत दिखानेवाली अविवाहित बहनों के आगे कई मुश्किलें आयीं। लेकिन उन्होंने इनका कैसे सामना किया?
कनाडा की रहनेवाली डाइआन कहती है, “शुरू-शुरू में अपने परिवार से दूर रहना मेरे लिए बहुत मुश्किल था।” आज वह 62 साल की है और पिछले 20 साल से आइवरी कोस्ट में (जो अब कोटे डी आइवरी के नाम से जाना जाता है) मिशनरी सेवा कर रही है। वह बताती है, “मैंने यहोवा से मदद माँगी कि मैं जहाँ सेवा कर रही हूँ वहाँ के लोगों से प्यार कर सकूँ। गिलियड स्कूल के एक शिक्षक, भाई जैक रेडफर्ड ने हमें समझाया कि जहाँ हमें सेवा करने के लिए भेजा जाता है शायद वहाँ के हालात देखकर हम पहले हैरान हो जाएँ, यहाँ तक कि वहाँ घोर गरीबी देखकर हम परेशान हो जाएँ। लेकिन उन्होंने कहा, ‘गरीबी पर नहीं, लोगों पर ध्यान दो! उनके चेहरे और उनकी आँखों को देखो। जब वे बाइबल की सच्चाइयाँ सुनते हैं तो उन पर क्या असर होता है, उसे देखने की कोशिश करो।’ मैंने यही किया और मुझे आशीष मिली! जब भी मैं दिलासा देनेवाला राज का संदेश दूसरों को सुनाती थी, तो मैं लोगों की आँखों में चमक देख पाती थी!” डाइआन को और किस बात से मदद मिली जिससे वह दूसरे देश में सेवा कर पायी? वह कहती है, “मैंने अपने बाइबल विद्यार्थियों से गहरी दोस्ती की और उन्हें यहोवा के वफादार सेवक बनते देखकर मुझे बहुत खुशी होती थी। जहाँ मैं सेवा कर रही थी अब वही मेरा घर था। जैसा यीशु ने वादा किया था मुझे सच्चाई में माँ, पिता, भाई और बहनें मिलीं।”—मर 10:29, 30.
एन जिसकी उम्र 46 है, एशिया में एक ऐसी जगह सेवा कर रही है जहाँ हमारे काम पर रोक लगी है। वह बताती है, “इतने सालों के दौरान मैंने अलग-अलग देशों में सेवा की है और मैं ऐसी कई बहनों के साथ रही हूँ जिनका रहन-सहन और शख्सियत मुझसे बिलकुल अलग थी। इस वजह से कभी-कभी हमारे बीच गलतफहमी हो जाती थी और हम एक-दूसरे को ठेस पहुँचाते थे। जब ऐसा होता था तो मैं उनके और करीब आने की कोशिश करती थी, उनके रहन-सहन को और अच्छी तरह समझने की कोशिश करती थी। मैंने उनके साथ प्यार से पेश आने में, उनका लिहाज़ करने में बहुत मेहनत की। मैं खुश हूँ कि मेरी मेहनत रंग लायी और ये बहनें आज भी मेरी अच्छी दोस्त हैं। इसी वजह से मैं अपनी सेवा में बने रह पायी हूँ।”
जर्मनी की रहनेवाली ऊटा, जो अब 53 साल की है, उसे 1993 में मिशनरी सेवा के लिए मेडागास्कर भेजा गया। वह कहती है, “शुरू-शुरू में मुझे बहुत मुश्किल हुई। मुझे वहाँ की भाषा सीखनी थी, उमसवाले मौसम में खुद को ढालना था और मलेरिया, अमीबा और दूसरे कीटाणुओं का भी सामना करना था। लेकिन दूसरों ने मेरी बहुत मदद की। वहाँ की बहनें, उनके बच्चे और मेरे बाइबल विद्यार्थी मेरे साथ सब्र से पेश आए और उन्होंने भाषा सीखने में मेरी मदद की। जब मैं बीमार थी तो मेरी मिशनरी साथी ने प्यार से मेरी देखभाल की। लेकिन सबसे बढ़कर यहोवा ने मेरी मदद की। मैं लगातार प्रार्थना में अपनी चिंताएँ उसे बताती थी। फिर मैं अपनी प्रार्थनाओं का जवाब पाने का इंतज़ार करती थी। कभी-कभी मुझे कुछ दिनों तक, तो कभी महीनों तक सब्र रखना पड़ता था। मगर यहोवा ने एक-एक करके मेरे सारी मुश्किल सुलझा दी।” ऊटा को मेडागास्कर में सेवा करते हुए 23 साल हो गए हैं।
ज़िंदगी में ढेरों आशीषें मिलीं
दूसरे देश में सेवा करनेवाले बाकी भाई-बहनों की तरह, ये अविवाहित बहनें भी बताती हैं कि इस सेवा से उन्हें ज़िंदगी में ढेरों खुशियाँ मिली हैं। उन्हें मिली कुछ आशीषें क्या हैं?
जर्मनी की रहनेवाली हाइडी 1968 से आइवरी कोस्ट में (जो अब कोटे डी आइवरी के नाम से जाना जाता है) मिशनरी सेवा कर रही है। वह अब 73 साल की है और कहती है, “मेरी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी यही है कि मेरे कई बाइबल विद्यार्थी ‘सच्चाई की राह पर चल रहे हैं।’ इनमें से कुछ अब पायनियर हैं और कुछ मंडली में प्राचीन हैं। मेरे कई विद्यार्थी मुझे माँ या दादी बुलाते हैं। एक प्राचीन, उसकी पत्नी और बच्चे मुझे अपने ही घर का सदस्य मानते हैं। इस तरह यहोवा ने मुझे एक बेटा, एक बहू और तीन पोते-पोतियाँ दिए।”—3 यूह. 4.
कनाडा की रहनेवाली कैरन को दक्षिण अफ्रीका में सेवा करते हुए 20 साल से भी ज़्यादा हो गए हैं। वह अब 72 साल की है। वह कहती है, “मिशनरी सेवा में मैंने सीखा कि दूसरों के लिए मैं खुद को पूरी तरह दे दूँ, उनसे प्यार करूँ और उनके साथ सब्र रखूँ। अलग-अलग देशों के भाई-बहनों के साथ सेवा करने से मेरी सोच का दायरा और भी बढ़ गया है। मैंने सीखा कि एक काम को करने के कई तरीके होते हैं। मुझे एक और आशीष मिली है, दुनिया-भर में मेरे बहुत-से प्यारे दोस्त हैं! चाहे हमारी ज़िंदगी में हालात बदल जाएँ, यहोवा की सेवा में हमारी ज़िम्मेदारियाँ बदल जाएँ, मगर एक चीज़ कभी नहीं बदलती और वह है हमारी दोस्ती।”
इंग्लैंड की रहनेवाली मारग्रेट ने लाओस में मिशनरी सेवा की है। अब वह 79 साल की है। वह कहती है, “दूसरे देश में सेवा करने से मैं देख पायी कि किस तरह यहोवा सभी जातियों और संस्कृतियों से लोगों को अपने संगठन की तरफ खींचता है। इससे मेरा विश्वास बहुत मज़बूत हुआ है। मुझे पूरा यकीन है कि यहोवा अपने संगठन को राह दिखा रहा है और उसका हर मकसद ज़रूर पूरा होगा।”
बेशक जो अविवाहित बहनें दूसरे देश में सेवा कर रही हैं उन्होंने मसीही सेवा में एक बेहतरीन रिकॉर्ड कायम किया है। वे सब तारीफ के काबिल हैं! (न्यायि. 11:40) और-तो-और उनकी गिनती बढ़ती जा रही है। (भज. 68:11) क्या आप अपने हालात में फेरबदल कर सकते हैं और इस लेख में बतायी जोशीली बहनों की मिसाल पर चल सकते हैं? अगर आप ऐसा कर सकते हैं, तो आप ‘परखकर देख पाएँगे कि यहोवा कितना भला है।’—भज. 34:8.